मीर तक़ी मीर द्वारा इस्तेमाल की गई बह्रें और उनके उदहारण
मुतक़ारिब असरम मक़्बूज़ महज़ूफ़ 16-रुक्नी(बह्र-ए-मीर)
फ़अ’लु फ़ऊलु फ़ऊलु फ़ऊलु फ़ऊलु फ़ऊलु फ़ऊलु फ़’अल
21 121 121 121 121 121 121 12
तख्नीक से हासिल अरकान :
फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ा
22 22 22 22 22 22 22 2
ख़ाक से आदम करके उठाया जिसको दस्त-ए-क़ुदरत ने
क़द्र नहीं कुछ उस बंदे की ये भी ख़ुदा की क़ुदरत है
क्या दिलकश है बज़्म-ए-जहाँ की जाते याँ से जिसे देखो
वो ग़मदीदा रंज-कशीदा आह सरापा हसरत है
हज से जो कोई आदमी हो तो सारा आलम हज ही करे
मक्के से आये शैख़ जी लेकिन वे तो वही हैं ख़र के ख़र
मुस्लीमो-काफिर के झगड़े में जंगो-जदल से रिहाई नहीं
लोथों पे लोथें गिरती रहेंगी कटते रहेंगे सर के सर
हा हा ही ही कर टालेगा उस का ग़रूर दो चंदाँ है
घिघियाने का अब क्या हासिल यूँ ही करे हैं हा हा हम
मीर फ़क़ीर हुए तो इक दिन क्या कहते हैं बेटे से
उम्र रही है थोड़ी उसे अब क्यूँ-कर काटें बाबा हम
नंगे-ख़ल्क़ किया है हमको आख़िर दस्ते-ख़ाली ने
आलम में अस्बाब के है क्या शोरिश बे-असबाबी की
जब से आँखें खुली हैं अपनी दर्द-ओ-रंज-ओ-ग़म देखे
इन ही दीदा-ए-नम दीदों से क्या-क्या हमने सितम देखे
महव-ए-सुख़न हम फ़िक्र-ए-सुख़न में रफ़्ता ही बैठे रहते हैं
आपको जब खोया है हमने तब ये गौहर पाए हैं
मीर मुक़द्दस आदमी हैं, थे सुब्ह बकफ़ मैख़ाने में
सुब्ह जो हम भी जा निकले तो, देख के क्या शरमाए हैं
शायर हो मत चुपके रहो अब चुप में जानें जाती हैं
बात करो अब्यात पढ़ो कुछ बीतीं हमको बताते रहो
जान चली जाती है हमारी उस की ओर नज़र के साथ
यानी चश्म-ए-शौक़ लगी रहती है शिगाफ़-ए-दर के साथ
जंगल जंगल शौक़ के मारे नाक़ा-सवार फिरा की है
मजनूं जो सहराई हुआ तो लैला भी सौदाई हुई
वादे करो हो बरसों के तुम दम का भरोसा हमको नहीं
कुछ का कुछ हो जाता है याँ इक पल में इक आन के बीच
जिसको ख़ुदा देता है सब कुछ वो ही सब कुछ देते हैं
टोपी लंगोटी पास है अपने इस पर क्या इनआम करें
चोर-उचक्के सिख-मरहट्टे शाह-ओ-गदा ज़र ख़्वाहां है
चैन से हैं जो कुछ नहीं रखते फ़ुक़्र भी इक दौलत है अब
चलते हैं तो चमन को चलिये कहते हैं कि बहाराँ हैं
पात हरे हैं फूल खिले हैं कम-कम बाद-ओ-बाराँ हैं
पत्ता - पत्ता बूटा - बूटा हाल हमारा जाने है
जाने न जाने गुल ही न जाने बाग़ तो सारा जाने है
दूर बहुत भागो हो हमसे, सीख तरीका गज़लों का
वहशत करना शेवा है क्या, अच्छी आँखों वालों का
शहर से यार सवार हुआ जो सवाद में ख़ूब ग़ुबार है आज
दश्ती वहश‐ओ‐तैर उस के सर-तेज़ी ही में शिकार है आज
ख़ूब जो आँखें खोल के देखा शाख़-ए-गुल सा नज़र आया
उन रंगों फूलों में मिला कुछ महव-ए-जल्वा-ए-यार है आज
बदनामी क्या इश्क़ की कहिये रुसवाई सी रुसवाई है
सहरा सहरा वहशत भी थी दुनिया दुनिया तोहमत थी
इश्क़ हमारे ख़याल पड़ा है ख़्वाब गई आराम गया ('ख़्वाब' का अर्थ यहाँ 'नींद' है 'ख़्वाब गई' = 'नींद गई')
जी का जाना ठहर रहा है सुब्ह गया या शाम गया
दिल तड़पे है जान खपे है, हाल जिगर का क्या होगा
मजनूँ मजनूँ लोग कहे हैं, मजनूँ क्या हम सा होगा
आज हमारे घर आया तू , क्या है यां जो निसार करें
इल्ला खेंच बग़ल में तुझ को, देर तलक हम प्यार करें
क्या जाता है इसमें हमारा, चुपके हम तो बैठे हैं
दिल को समझाना था सो समझा, नासेह को समझाने दो
मीर ख़िलाफ़े-मिज़ाजे-मुहब्बत, मुजिबे-तल्खी कशीदन है
यार मुआफ़िक़ मिल जाए तो, लुत्फ़ है चाह, मज़ा है इश्क़
दिल के तह की कही नहीं जाती, नाज़ुक है असरार बहुत
अंछर हैं तो इश्क़ के दो ही, लेकिन है बिस्तार बहुत
हिज्र ने जी ही मारा हमारा क्या कहिये क्या मुश्किल है
उस से जुदा रहना होता है, जिससे हमें है प्यार बहुत
सुब्ह हुई गुलज़ार में ताइर अपने दिल को टटोलें हैं
याद में उस ख़ुदरौ गुलेतर की कैसे कैसे बोलें हैं
उल्टी हो गईं सब तदबीरें कुछ न दवा ने काम किया
देखा इस बीमारी-ए-दिल ने आख़िर काम तमाम किया
अहद-ए-जवानी रो रो काटा पीरी में लीं आँखें मूँद
यानी रात बहुत थे जागे सुब्ह हुई आराम किया
नाहक़ हम मजबूरों पर ये तोहमत है मुख़्तारी की
चाहते हैं सो आप करें हैं हम को अबस बदनाम किया
'मीर' के दीन-ओ-मज़हब को अब पूछते क्या हो उन ने तो
क़श्क़ा खींचा दैर में बैठा कब का तर्क इस्लाम किया
मुतक़ारिब मुसम्मन सालिम
फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन
122 122 122 122
मुँह अपना कभू वो इधर कर रहेगा
हमें इश्क़ है तो असर कर रहेगा
ये चश्म आईना-दार-ए-रू थी किसू की
नज़र इस तरफ़ भी कभू थी किसू की
गुलूगीर ही हो गई यावागोई
रहा मैं ख़मोशी को आवाज़ करता
उचटती मुलाक़ात कब तक रहेगी
कभू तो तह-ए-दिल से भी यार होगा
तेरे बंदे हम हैं ख़ुदा जानता है
ख़ुदा जाने तू हम को क्या जानता है
न बक शैख़ इतना भी वाही तबाही
कहाँ रहमत-ए-हक़ कहाँ बे-गुनाही
रिसाते हो आते हो अहल-ए-हवस में
मज़ा रस में है लोगे क्या तुम कुरस में
अब आंखों में ख़ूँ दम ब दम देखते हैं
न पूछो जो कुछ रंग हम देखते हैं
मिज़ाज़ों में यास आ गई है हमारे
न मरने का ग़म है न जीने कि शादी
न सोचा न समझा न सीखा न जाना
मुझे आ गया ख़ुद - ब - ख़ुद दिल लगाना
मिलो इन दिनों हमसे इक रात जानी
कहाँ हम, कहाँ तुम, कहाँ फिर जवानी
दिल-ए-ज़ख़्म-ख़ुर्दा के और इक लगाई
मुदावा किया ख़ूब घायल का अपने
गए जी से छूटे बुतों की जफ़ा से
यही बात हम चाहते थे ख़ुदा से
वो अपनी ही ख़ूबी पे रहता है नाज़ाँ
मरे या जिए कोई उसकी बाला से
न शिकवा शिकायत न हर्फो- हिकायत
कहो मीर जी आज क्यों हो ख़फा से
रहा राब्ता ग़ारत-ए-दिल तलक बस
नहीं अब तो बंदे से साहब सलामत
मुतक़ारिब मुसम्मन महज़ूफ़
फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़’अल
122 122 122 12
थके चारा-जूई से अब क्या करें
कहो तुम सो दिल का मुदावा करें
रहे फिरते दरिया में गिर्दाब से
वतन में भी हैं हम सफ़र में भी हैं
बहुत सअ'ई करिए तो मर रहिये मीर
बस अपना तो इतना ही मक्दूर है
न मिल 'मीर' अबके अमीरों से तू
हुए हैं फ़क़ीर उनकी दौलत से हम
कहा मैंने कितना है गुल का सबात
कली ने ये सुनकर तब्बसुम किया
हवा रंग बदले है हर आन मीर
ज़मीन‐ओ‐ज़माँ हर ज़माँ और है
तुझी पर कुछ ऐ बुत नहीं मुनहसिर
जिसे हम ने पूजा ख़ुदा कर दिया
फ़क़ीराना आए सदा कर चले
कि म्याँ ख़ुश रहो हम दुआ कर चले
कोई ना-उमीदाना करते निगाह
सो तुम हम से मुँह भी छुपा कर चले
बहुत आरज़ू थी गली की तेरी
सो याँ से लहू में नहा कर चले
दिखाई दिए यूँ कि बेख़ुद किया
हमें आप से भी जुदा कर चले
जबीं सज्दा करते ही करते गई
हक़-ए-बंदगी हम अदा कर चले
परस्तिश की याँ तक कि ऐ बुत तुझे
नज़र में सभों की ख़ुदा कर चले
गई उम्र दर-बंद-ए-फ़िक्र-ए-ग़ज़ल
सो इस फ़न को ऐसा बड़ा कर चले
कहें क्या जो पूछे कोई हम से 'मीर'
जहाँ में तुम आए थे क्या कर चले
मुतक़ारिब मुसम्मन अस्लम मक़्बूज़ मुख़न्नक सालिम
फ़ेलुन फ़ऊलुन फ़ेलुन फ़ऊलुन
22 122 22 122
अब हाल अपना उस के है दिल-ख़्वाह
क्या पूछते हो अल्हम्दुलिल्लाह
मर जाओ कोई पर्वा नहीं है
कितना है मग़रूर अल्लाह अल्लाह
मुजरिम हुए हम दिल दे के वर्ना
किस को किसो से होती नहीं चाह
है मा-सिवा क्या जो 'मीर' कहिए
आगाह सारे उस से हैं आगाह
जल्वे हैं उस के शानें हैं उस की
क्या रोज़ क्या ख़ुर क्या रात क्या माह
ज़ाहिर कि बातिन अव्वल कि आख़िर
अल्लाह अल्लाह अल्लाह अल्लाह
हज़ज मुसद्दस अख़रब मक़्बूज़ महज़ूफ़
मफ़ऊल मुफ़ाइलुन फ़ऊलुन
221 1212 122
मक़सूद को देखें पहुंचे कब तक
गर्दिश में तो आसमां बहुत है
जी को नहीं लाग लामकां से
हमको कोई दिल मकाँ बहुत है
मिल जिनसे शराब तू पिए है
कह देते हैं वो ही राज़ तेरा
कुछ इश्क़-ओ-हवस में फ़र्क़ भी कर
कीधर है वो इम्तियाज़ तेरा
क्या उस के गए है ज़िक्र दिल का
वीरान पड़ा है ये मकाँ तो
मत तुर्बते-मीर को मिटाओ
रहने दो ग़रीब का निशाँ तो
इक दिन तो वफ़ा भी करते वादा
गुज़री है उम्मीदवार हर रात
हज़ज मुसद्दस महज़ूफ़
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन फ़ऊलुन
1222 1222 122
तरीक़:-ए-इश्क़ में है रह-नुमा दिल
पयम्बर दिल है क़िबला दिल ख़ुदा दिल
किसू से दिल नहीं मिलता है या रब
हुआ था किस घड़ी उस से जुदा मैं
गया है वो सो दिल खुलता नहीं है
पड़ा है एक मुद्दत से ये घर बंद
सभों से आरसी के मिस्ल वा हो
किसू के मुँह पे दरवाज़ा न कर बंद
ख़िरदमंदी हुई ज़ंजीर वर्ना
गुज़रती ख़ूब थी दीवानापन में
मसाइब और थे पर दिल का जाना
अजब इक सानिहा सा हो गया है
सिरहाने 'मीर' के कोई न बोलो (‘आहिस्ता बोलो’ - प्रचलित रूप है)
अभी टुक रोते रोते सो गया है
अमीरों तक रसाई हो चुकी बस
मेरी बख़्त-आज़माई हो चुकी बस
बहार अब के भी जो गुज़री क़फ़स में
तो फिर अपनी रिहाई हो चुकी बस
गले में गेरुवी कफ़नी है अब 'मीर'
तुम्हारी मीरज़ाई हो चुकी बस
हज़ज मुसम्मन सालिम
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन
1222 1222 1222 1222
भरी आँखें किसी की पोंछते गर आस्तीं रखते
हुई शर्मिन्दगी क्या-क्या हमें इस दस्ते-खाली से
हम इस राहे-हवादिस में बसाने-सब्ज़ा वाके हैं
कि फ़ुर्सत सर उठाने की नहीं टुक पायमाली से
मुहैया जिस कने असबाब मुल्की और माली थे
वो इसकंदर गया याँ से तो दोनों हाथ ख़ाली थे
बहार आई है गुंचे गुल के निकले हैं गुलाबी से
निहाले सब्ज झूमें हैं गुलिस्ताँ में शराबी से
बहाले-सग फिरा कब तक करूँ यूँ उस के कूचे में
खिजालत खेंचता हूँ मीर आख़िर मैं भी इंसाँ हूँ
जहाँ से देखिये इक शेर-ए-शोरअंगेज़ निकले है
क़यामत का सा हंगामा है हर जा मेरे दीवाँ में
ब-रंग-ए-बू-ए-गुल, इस बाग़ के हम आश्ना होते
कि हम-राह-ए-सबा टुक सैर करते, और हवा होते
सरापा आरज़ू होने ने बंदा कर दिया हमको
वगरना हम ख़ुदा थे, गर दिल-ए-बेमुद्दआ होते
इलाही कैसे होते हैं जिन्हें है बंदगी ख़्वाहिश
हमें तो शर्म दामनगीर होती है, ख़ुदा होते
हज़ज मुसम्मन अख़रब मक्फ़ू्फ़ मक्फ़ू्फ़ मुख़न्नक
मफ़ऊल मुफ़ाईलुन मफ़ऊल मुफ़ाईलुन
221 1222 221 1222
कहते तो हो यूँ कहते, यूँ कहते जो वो आता
सब कहने की बातें हैं कुछ भी न कहा जाता
लज़्ज़त से नहीं ख़ाली जानों का खपा जाना
कब ख़िज़्र ओ मसीहा ने मरने का मज़ा जाना
जाती है गुज़र जी पर उस वक़्त क़यामत सी
याद आवे है जब तेरा यक-बारगी आ जाना
मर रहते जो गुल बिन तो सारा ये ख़लल जाता
निकला ही न जी वर्ना काँटा सा निकल जाता
उस सीमबदन को थी कब ताब-ए-ताब इतनी
वो चाँदनी में शब की होता तो पिघल जाता
मत सहल हमें जानो फिरता है फ़लक बरसों
तब ख़ाक के पर्दे से इंसान निकलते हैं
किस का है क़िमाश ऐसा गूदड़ भरे हैं सारे
देखो न जो लोगों के दीवान निकलते हैं
कुछ मौज-ए-हवा पेचाँ ऐ 'मीर' नज़र आई
शायद कि बहार आई ज़ंजीर नज़र आई
दिल्ली के न थे कूचे औराक़-ए-मुसव्वर थे
जो शक्ल नज़र आई तस्वीर नज़र आई
हज़ज मुसम्मन अख़रब मक्फ़ू्फ़ महज़ूफ़
मफ़ऊल मुफ़ाईलु मुफ़ाईलु फ़ऊलुन
221 1221 1221 122
इतना ही मुझे इल्म है कुछ मैं हूँ बहर-चीज़
मालूम नहीं ख़ूब मुझे भी कि मैं क्या हूँ
बेकार भी दरकार हैं सरकार में साहिब
आते हैं खिंचे हम कभू बेगार में साहिब
नाम आज कोई याँ नहीं लेता है उन्हों का
जिन लोगों के कल मुल्क ये सब ज़ेर-ए-नगीं था
जिस सर को ग़रूर आज है याँ ताजवरी का
कल उस पे यहीं शोर है फिर नौहागरी का
जब नाम तेरा लीजिए तब चश्म भर आवे
इस ज़िंदगी करने को कहाँ से जिगर आवे
क्या हम में रहा गर्दिश-ए-अफ़लाक से अब तक
फिरते हैं कुम्हारों के पड़े चाक से अब तक
बह्रे - रुबाई
हज़ज मुसम्मन अख़रब मक़्बूज़ मक्फ़ूफ़ मज्बूब
मफ़ऊल मुफ़ाइलुन मुफ़ाईलु फ़’अल
221 1212 1221 12
(इस बह्र में मीर की यह एकमात्र ग़ज़ल है. ग़ज़ल के कई मिसरों में रुबाई के नियमों के अनुसार ही छूट ली गई है )
सब शर्मे-जबीन-ए-यार से पानी है
हरचंद कि गुल शगुफ़्ता पेशानी है
समझे ना कि बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल हुए
लड़कों से मुलाक़ात ही नादानी है
जूँ आईना सामने खड़ा हूँ यानी
ख़ूबी से तेरे चेहरे की हैरानी है
ख़त लिखते जो ख़ूँफ़िशाँ थे हम उनने कहा
काग़ज़ जो लिखे है अब सो अफ़्शानी है
दोज़ख़ में हूँ जलती जो रहे है छाती
दिल सोख़्तगी अज़ाब-ए-रुहानी है
मिन्नत की बहुत तो उनने दो हर्फ़ कहे
सौ बरसों में इक बात मेरी मानी है
कल सेल सा जोशाँ जो इधर आया मीर
सब बोले कि ये फ़क़ीर सैलानी है
रमल मुसद्दस महज़ूफ़
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2122 2122 212
कोशिश अपनी थी अबस पर की बहुत
क्या करें हम चाहता था जी बहुत
बीच में हम ही न हों तो लुत्फ़ क्या
रहम कर अब बेवफ़ाई हो चुकी
कुछ न समझा मैं जुनूने इश्क़ में
देर तक नासेह समझाता रहा
ज़ख्म झेले दाग़ भी खाए बहुत
दिल लगा कर हम तो पछताए बहुत
मीर से पूछा जो मैं आशिक हो तुम
हो के कुछ चुपके से शरमाये बहुत
राह-ए-दूर-ए-इश्क़ में रोता है क्या (यह मिसरा ‘इब्तिदा-ए-इश्क़ है रोता है क्या’ के रूप में लोकप्रिय है)
आगे आगे देखिए होता है क्या
सुबह पीरी शाम होने आई `मीर'
तू न चेता, याँ बहुत दिन कम रहा
चश्म हो तो आईना-ख़ाना है दहर
मुँह नज़र आता है दीवारों के बीच
रमल मुसम्मन महज़ूफ़
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2122 2122 2122 212
रखिये गर्दन को तेरी तेग़-ए-सितम पर हो सो हो
जी में हम ने ये किया है अब मुक़र्रर हो सो हो
कब तलक फ़रियाद करते यूं फिरें अब क़स्द है
दाद लीजे अपनी अब उस ज़ालिम से अड़कर हो सो हो
क़तरा-क़तरा अश्कबारी ता-कुजा पेशे-सहाब
एक दिन तो टूट पड़ ऐ दीदा-ए-तर हो सो हो
सरसरी कुछ सुन लिया फिर वाह वा कर उठ गए
शेर ये कम-फ़हम समझे हैं ख़याल-ए-बंग(भंग) है
सब्र भी करिए बला पर मीर साहिब जी कभू
जब ना तब रोना ही कुढ़ना ये भी कोई ढंग है
क्या तन-ए-नाज़ुक है जाँ को भी हसद जिस तन पे है
क्या बदन का रंग है तह जिस की पैराहन पे है
रब्त दिल को उस बुत-ए-बेमेह्र कीनावर से है
क्या कहूँ मैं आह मुझ को काम किस पत्थर से है
शहर में तो मौसम-ए-गुल में नहीं लगता है जी
या गरीबां कोह का या दामन-ए-सहरा हो मियां
गुल गए बूटे गए गुलशन हुए बरहम गए
कैसे कैसे हाय अपने देखते मौसम गए
देर कुछ खींचती तो कहते भी मुलाक़ात की बात
मिलना अपना जो हुआ उससे सो बात की बात
घर में जी लगता नहीं उस बिन तो हम होकर उदास
दूर जाते हैं निकल हिज्राँ से घबराये हुए
'मीर' हर-यक मौज में है ज़ुल्फ़ ही का सा दिमाग़
जब से वो दरिया पे आ कर बाल अपने धो गया
काबे जाने से नहीं कुछ शेख़ मुझको इतना शौक़
चाल वो बतला कि मैं दिल में किसी के घर करूँ
ग़ैर के कहने से मारा उन ने हम को बे-गुनाह
ये न समझा वो कि वाक़े में भी कुछ था या न था
इश्क़-ओ-मयख़्वारी निभे है कोई दरवेशी के बीच
इस तरह के ख़र्ज-ए-ला-हासिल को दौलत चाहिए
आक़िबत फ़रहाद मर कर काम अपना कर गया
आदमी होवे किसी पेशे में जुरअ’त चाहिए
हो तरफ़ मुझ पहलवाँ शायर का कब आजिज़ सुख़न
सामने होने को साहब फ़न के क़ुदरत चाहिए
इश्क़ में वस्ल-ओ-जुदाई से नहीं कुछ गुफ़्तुगू
क़ुर्ब-ओ-बाद उस जा बराबर है मुहब्बत चाहिए
नाज़ुकी को इश्क़ में क्या दख़्ल है ऐ बुल-हवस
याँ सऊबत खींचने को जी में ताक़त चाहिए
तंग मत हो इब्तिदा-ए-आशिक़ी में इस क़दर
ख़ैरियत है 'मीर' साहिब दिल सलामत चाहिए
रमल मुसम्मन सालिम मख़्बून महज़ूफ़ मुसक्किन
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2122 1122 1122 22
शहरों मुल्कों में जो ये मीर कहता है मियां
दीदनी है पर बहुत कम नज़र आता है मियां
किस्मत उस बज़्म मे लाई की जहां का साक़ी
दे है मै सबको हमें ज़हर पिलाता है मियां
अब दरे-बाज़े-बयाबाँ मे क़दम रखिए ‘मीर’
कब तलक तंग रहें शहर की दीवारों में
आदम-ए-ख़ाकी से आलम को जिला है वर्ना
आइना था तो मगर क़ाबिल-ए-दीदार न था
अब की माहे-रमज़ा देखा था पैमाने में
बारे सब रोज़े तो गुज़रे मुझे मैखाने में
'मीर' दरिया है, सुने शेर ज़बानी उस की
अल्लाह अल्लाह रे तबियत की रवानी उस की
बात की तर्ज़ को देखो तो कोई जादू था
पर मिली ख़ाक में सब सह्र-बयानी उस की
अब गये उस के जो अफ़सोस नहीं कुछ हासिल
हैफ़ सद हैफ़ कि कुछ क़द्र न जानी उस की
रोज़ आने पे नहीं निस्बत-ए-इश्क़ी मौक़ूफ़
उम्र भर एक मुलाक़ात चली जाती है
हम भी इस शहर में उन लोगों से हैं ख़ानाख़राब
मीर घरबार जिन्हूँ के रहे सैलाब में हैं
क्या है इक़बाल की उस दुश्मने-जाँ के आगे
मुंह से हर एक के सौ बार दुआ निकले है
यूं न दिल देंगे किसू सीमबदन ज़रदोस्त को
इब्तदा-ए-इश्क़ में अपना भी घर देखेंगे हम
वक़्त खुश उनका है जो हमबज्म हैं, हम तो
दरो-दीवार को अहवाल सुना जाते हैं
एक बीमारे-जुदाई हूँ मैं आप ही तिस पर
पूछने वाले जुदा जान को खा जाते हैं
आती है खून की बू, दोस्ती-ए-यार के बीच
जी लिए उन ने हज़ारों के, यूं ही प्यार के बीच
पाँव के नीचे की मिट्टी भी न होगी हम सी
क्या कहें उम्र को किस तौर बसर हमने किया
जैसे हसरत लिए जाता है जहां से कोई
आह यूँ कूचा-ए-दिलबर से सफ़र हमने किया
हम से कुछ आगे ज़माने में हुआ क्या क्या कुछ
तो भी हम ग़ाफ़िलों ने आ के किया क्या क्या कुछ
एक महरूम चले 'मीर' हमीं आलम से
वर्ना आलम को ज़माने ने दिया क्या क्या कुछ
दिन नहीं रात नहीं सुब्ह नहीं शाम नहीं
वक़्त मिलने का मगर दाख़िल-ए-अय्याम नहीं
जम गया ख़ूँ कफ़-ए-क़ातिल पे तेरा 'मीर' ज़ि-बस
उन ने रो रो दिया कल हाथ को धोते धोते
रात मज्लिस में तेरा हम भी खड़े थे चुपके
जैसे तस्वीर लगा दे कोई दीवार के साथ
कुछ न देखा फिर ब-जुज़ यक शोला-ए-पुर-पेच-ओ-ताब
शम्अ' तक तो हम ने देखा था कि परवाना गया
गुल खिले सद रंग तो क्या बे-परी से ए नसीम
मुद्दतें गुज़रीं कि वो गुलज़ार का जाना गया
देखें पेश आवे है क्या इश्क़ में अब तो जूँ सैल
हम भी इस राह में सर गाड़े चले जाते हैं
मेह्र की तुझसे तवक़्क़ो थी सितमगर निकला
मोम समझे थे तेरे दिल को सो पत्थर निकला
दिल की आबादी की इस हद है ख़राबी कि न पूछ
जाना जाता है कि इस राह से लश्कर निकला
शहर-ए-दिल आह अजब जाए थी पर उसके गए
ऐसा उजड़ा कि किसी तरह बसाया न गया
बारे दुनिया में रहो ग़म-ज़दा या शाद रहो
ऐसा कुछ कर के चलो याँ कि बहुत याद रहो
उस सुख़न-रस से अगर शब की मुलाक़ात रहे
बात रह जाए न ये दिन रहें ने रात रहे
मुद्दई मुझको खड़े साफ़ बुरा कहते है
चुपके तुम सुनते हो बैठे इसे क्या कहते हैं
हुस्न तो है ही करो लुत्फ़े-ज़बां भी पैदा
मीर को देखो सभी लोग भला कहते हैं
कहियो कासिद जो वह पूछे हमें क्या करते हैं
जानो-ईमानो-मुहब्बत की दुआ करते हैं
इश्क़ आतिश भी जो देवे तो दम न मारें हम
शमए-तस्वीर हैं ख़ामोश जला करते हैं
रुख्सते-ज़ुम्बिशे-लब इश्क़ की हैरत से नहीं
मुद्दतें गुज़रीं कि हम चुप ही रहा करते हैं
ज़िन्दगी करते है मरने के लिए अहले-जहाँ
बाकया मीर है दरपेश अजब यारों का
लाग अगर दिल को नहीं लुत्फ़ नहीं जीने का
उलझे सुलझे किसू गेसू के गिरफ्तार रहो
सारे बाजारे जहाँ का है यही मोल ऐ मीर
जान को बेंच के भी दिल के खरीदार रहो
रमल मुसम्मन मश्कूल सालिम
फ़इलातु फ़ाइलातुन फ़इलातु फ़ाइलातुन
1121 2122 1121 2122
न गया ख़याल-ए-ज़ुल्फ़-ए-सियह जफ़ाशिआराँ
न हुआ कि सुब्ह होवे शब-ए-तीरा रोज़गाराँ
हुई ईद सब ने पहने तरब-ओ-ख़ुशी के जामे
न हुआ कि हम भी बदलें ये लिबास-ए-सोगवाराँ
नहीं तुझ को चश्म-ए-इबरत ये नुमूद में है वर्ना
कि गए हैं ख़ाक में मिल कई तुझ से ताज-दाराँ
तभी कौंद-कौंद इतना तू ज़मीं से जाये मिल-मिल
नहीं देखे बर्क़ तूने दमे-ख़ंदा उस के दंदाँ
मैं सफ़ा किया दिल इतना कि दिखाई देवे मुँह भी
वले मुफ़्त इस आइने को नहीं लेते ख़ुद-पसंदाँ
ये ग़लत कि मैं पिया हूँ क़दह-ए-शराब तुझ बिन
न कभू गले से उतरा क़तरा-ए-आब तुझ बिन
ये भी तुर्फा माजरा है कि उसी को चाहता हूँ
मुझे चाहिए है जिससे बहुत एहतिराज़ करना
रजज़ मुसद्दस मतव्वी मख़्बून महज़ूफ़
मुफ़तइलुन मुफ़तइलुन फ़ाइलुन
2112 2112 212
सुनके सिफ़त हमसे ख़राबात की
अक़ल गई ज़ाहिदे-बदज़ात की
कोई रमक़ जान थी तन में मेरे
सो भी तेरे ग़म की मुदारात की
रंग ये है दीदा-ए-गिर्यां से आज
लोहू टपकता है गरीबां से आज
सर बा फ़लक होने को है किस की ख़ाक
गर्द यक उठती है बयाबां से आज
यार अजब तरह से निगह कर गया
देखना वह दिल में जगह कर गया
तंग कबाई का समां यार की
पैरहने-गुंचा को तह कर गया
चोरी में दिल की वो हुनर कर गया
देखते ही आँखों में घर कर गया
दिल नहीं है मंज़िल-ए-सीना में अब
याँ से वो बेचारा सफ़र कर गया
तुंद ना हो हम तो मुए फिरते हैं
क्या तेरी इन बातों से डर जाऐंगे
खुल गए रुख़्सार अगर यार के
शमस-ओ-क़मर जी से उतर जाऐंगे
शर्त सलीक़ा हर इक अम्र में
ऐब भी करने को हुनर चाहिए
रजज़ मुसम्मन सालिम
मुस्तफ़इलुन मुस्तफ़इलुन मुस्तफ़इलुन मुस्तफ़इलुन
2212 2212 2212 2212
कर रहम टुक कब तक सितम मुझ पर जफ़ाकार इस क़दर
यक सीना ख़ंजर सैंकड़ों यक-जान-ओ-आज़ार इस क़दर
भागे मेरी सूरत से वो आशिक़ मैं इस की शक्ल पर
मैं इस का ख़्वाहां याँ तलक वो मुझसे बेज़ार इस क़दर
जितनी हो ज़िल्लत ख़ल्क़ में इतनी है इज़्ज़त इश्क़ में
नामूस से आ दरगुज़र बेनंग हो कर नाम कर
मर रह कहीं भी मीर जा सरगश्ता फिर ना ता-कुजा
ज़ालिम किसू का सुन कहा कोई घड़ी आराम कर
ऐ मुझसे तुझको सौ मिले तुझ सा ना पाया एक मैं
सो-सौ कहीं तूने मुझे मुँह पर ना लाया एक मैं
हैं तालिबे-सूरत सभी मुझ पर सितम क्यों इस क़दर
क्या मुजरिम-ए-इश्क़ बुताँ याँ हूँ ख़ुदाया एक में मैं
मरता मरो जीता जीओ आओ कोई जाओ कोई
है काम हम लोगों से क्या इस दिलबरे-ख़ुदकाम को
मस्ती में लग़्ज़िश हो गई माज़ूर रक्खा चाहिए
ऐ अहले मस्जिद इस तरफ़ आया हूँ मैं भटका हुआ
गुल शर्म से बह जाएगा गुलशन में हो कर आब सा
बुर्के से गर निकला कहीं चेहरा तेरा महताब सा
बहके जो हम मस्त आ गए सौ बार मस्जिद से उठा
वाइज़ को मारे ख़ौफ़ के कल लग गया जुल्लाब सा
रख हाथ दिल पर 'मीर' के दरयाफ़्त कर क्या हाल है
रहता है अक्सर ये जवाँ कुछ इन दिनों बेताब सा
रजज़ मुसम्मन मतव्वी मख़्बून
मुफ़तइलुन मुफ़ाइलुन / मुफ़तइलुन मुफ़ाइलुन
2112 1212 / 2112 1212
मिलने लगे हो देर देर देखिये क्या है क्या नहीं
तुम तो करो हो साहिबी बंदे में कुछ रहा नहीं
बू-ए-गुल और रंग-ए-गुल दोनों हैं दिलकश ऐ नसीम
लेक बक़द्र-ए-यक निगाह देखिए तो वफ़ा नहीं
शिकवा करूँ हूँ बख़्त का इतने ग़ज़ब ना हो बुताँ
मुझको ख़ुदा-न-ख़्वास्ता तुमसे तो कुछ गिला नहीं
चशम सफ़ैद-ओ-अश्क-ए-सुर्ख़ आह-ए-दिल हज़ीं है याँ
शीशा नहीं है मै नहीं अब्र नहीं हवा नहीं
एक फ़क़त है सादगी तिस पे बला-ए-जाँ है तू
इश्वा करिश्मा कुछ नहीं आन नहीं अदा नहीं
नाज़-ए-बुताँ उठा चुका दैर को मीर तर्क कर
काबे में जाके बैठ म्यां तेरे मगर ख़ुदा नहीं
संग मुझे बजाँ क़बूल उस के इवज़ हज़ार बार
ता-ब-कुजा ये इज़्तराब दिल न हुआ सितम हुआ
किस की हवा कहाँ का गुल हम तो क़फ़स में हैं असीर
सैर-ए-चमन की रोज़-ओ-शब तुझको मुबारक ऐ सबा
जैसे नसीम हर सहर तेरी करूँ हूँ जुस्तजू
ख़ाना-ब-ख़ाना दर-ब-दर शहर-ब-शहर कू-ब-कू
कामिल मुसम्मन सालिम
मुतफ़ाइलुन मुतफ़ाइलुन मुतफ़ाइलुन मुतफ़ाइलुन
11212 11212 11212 11212
न दिमाग़ है कि किसू से हम करें गुफ़्तगु ग़म-ए-यार में
न फ़राग़ है कि फ़क़ीरों से मिलें जा के दिल्ली दयार में
कहे कौन सैद-ए-रमीदा से, कि उधर भी फिर के नज़र करे
कि नक़ाब उलटे सवार है, तेरे पीछे कोई ग़ुबार में
झुकी कुछ कि जी में चुभी सभी हिली टुक कि दिल में खुबी सभी
ये जो लाग पलकों में इस के है ना छुरी में है ना कटार में
कोई शोला है कि शरारा है, कि हवा है यह कि सितारा है
यही दिल जो लेके गड़ेंगे हम, तो लगेगी आग मज़ार में
दम-ए-सुब्ह बज़्म-ए-ख़ुश जहाँ शब-ए-ग़म से कम न थी मेहरबाँ
कि चराग़ था सो तू दूद था जो पतंग था सो ग़ुबार था
दिल-ए-मुज़्तरिब से गुज़र गई शब-ए-वस्ल अपनी ही फ़िक्र में
न दिमाग़ था न फ़राग़ था न शकेब था न क़रार था
ये तुम्हारी इन दिनों दोस्ताँ मिज़ा जिस के ग़म में है ख़ूँ-चकाँ
वही आफ़त-ए-दिल-ए-आशिक़ाँ किसू वक़्त हम से भी यार था
कभू जाएगी जो उधर सबा तो ये कहियो उस से कि बेवफ़ा
मगर एक ‘मीर’-ए-शिकस्ता-पा तेरे बाग़-ए-ताज़ा में ख़ार था
नहीं खुलतीं आँखें तुम्हारी टुक कि मआल पर भी नज़र करो
ये जो वहम की सी नुमूद है उसे ख़ूब देखो तो ख़्वाब है
गए वक़्त आते हैं हाथ कब हुए हैं गँवा के ख़राब सब
तुझे करना होवे सो कर तू अब कि ये उम्र बर्क़-ए-शित्ताब है
मज़ारे मुसम्मन अख़रब मक्फ़ूफ़ मक्फ़ूफ़ मुख़न्नक सालिम
मफ़ऊलु फ़ाइलातुन मफ़ऊलु फ़ाइलातुन
221 2122 221 2122
बन्दे के दर्दे-दिल को कोई नहीं पहुंचता
हर एक बेहकीक़त यां है ख़ुदा रसीदा
उस बुत की क्या शिकायत राहो-रविश की करिए
परदे में बदसुलूकी, हम से ख़ुदा करे है
रहते हैं दाग़ अक्सर नानो-नमक की खातिर
जीने का इस समय में अब क्या मजा रहा है
क़स्रो-मकानों-मंज़िल, एकों को सब जगह है
एकों को कुछ नहीं है, दुनिया अज़ब जगह है
बरसों लगी रहे है जब मेहरो-मह की आँखें
तब कोई हम-सा साहब साहबनज़र बने है
याराने-दैरो-काबा दोनों बुला रहे हैं
अब देखें मीर अपना जाना किधर बने है
हम मस्त भी हो देखा आखिर मज़ा नहीं है
हुशियारी के बराबर कोई नशा नहीं है
हम भी तो फ़स्ले-गुल में चल टुक तो पास बैठें
सर जोड़-जोड़ कैसी कलियाँ निकल्तियाँ हैं
बढ़ती नहीं पलक से ता हम तलक भी पहुंचे
फिरती है वो निगाहें पलकों के साए साए
चाहें तो तुम को चाहें, देखें तो तुम को देखें
ख्वाहिश दिलों कि तुम हो, आँखों की आरजू तुम
क्या कहिए क्या रक्खें हैं हम तुझ से यार ख़्वाहिश
यक जान ओ सद तमन्ना यक दिल हज़ार ख़्वाहिश
कहता है कौन तुझको याँ यह न कर तू वह कर
पर हो सके तो प्यारे दिल में भी टुक जगह कर
ऐ हुब्बे-जाह वालो जो आज ताजवर है
कल उसको देखियो तुम ने ताज है न सर है
हम आप ही को अपना मक़्सूद जानते हैं
अपने सिवाए किस को मौजूद जानते हैं
मर कर भी हाथ आवे तो 'मीर' मुफ़्त है वो
जी के ज़ियान को भी हम सूद जानते हैं
शायद कबाब कर कर खाया कबूतर उन ने
नामा उड़ा फिरे है उस की गली में पर सा
सब पेच की ये बातें हैं शाइरों की वर्ना
बारीक और नाज़ुक मू कब है उस कमर सा
काबे में जाँबलब थे हम दूरी-ए-बुताँ से
आये हैं फिर के यारों अब के ख़ुदा के याँ से
क्या ऐतबार याँ का फिर उस को ख़्वार देखा
जिसने जहाँ में आकर कुछ ऐतबार पाया
आलम में आब-ओ-गिल के क्यूँकर निबाह होगा
अस्बाब गिर पड़ा है सारा मेरा सफ़र में
सहल इस क़दर नहीं है मुश्किल-पसंदी मेरी
जो तुझ को देखते हैं मुझ को सराहते हैं
ये तो नहीं कि हम पर हरदम है बेदिमाग़ी
आँखें दिखाते हैं तो चितवन में प्यार भी है
जूं मौज हम-बग़ल हूँ नायाब इस गुहर से
दरिया की सैर भी है बोस-ओ-कनार भी है
वैसा कहाँ है हम से जैसा कि आगे था तू
औरों से मिल के प्यारे कुछ और हो गया तू
कम मेरी और आना कम आँख का मिलाना
करने से ये अदाएँ है मुद्दआ' कि जा तू
गुफ़्त-ओ-शुनूद अक्सर मेरे तिरे रहे है
ज़ालिम मुआ'फ़ रखियो मेरा कहा-सुना तू
कह साँझ के मूए को ऐ 'मीर' रोयें कब तक
जैसे चराग़-ए-मुफ़्लिस इक-दम में जल बुझा तू
हैं मुस्ते-ख़ाक लेकिन जो कुछ हैं मीर हम हैं
मक़्दूर से ज़ियादा मक़्दूर है हमारा
मज़ारे मुसम्मन अख़रब मक्फ़ूफ़ महज़ूफ़
मफ़ऊलु फ़ाइलातु मुफ़ाईलु फ़ाइलुन
221 2121 1221 212
ऐ वह कोई जो आज पिये है शराबे-ऐश
ख़ातिर मे रखियो कल के भी रंजो-ख़ुमार को
नाख़ुन से बुलहवस का गला यूँ ही छिल गया
लोहू लगा के वो भी शहीदों में मिल गया
खूगर हुए हैं इश्क़ की गर्मी से ख़ार-ओ-खस
बिजली पड़ी रहे है मेरे आस्मां के बीच
जी के तईं छुपाते नहीं यूँ तो ग़म से हम
पर तंग आ गए हैं तुम्हारे सितम से हम
गर्दिश में जो कोई हो रखे उस से क्या उमीद
दिन रात आप चर्ख़ में है आस्मान तो
दिल्ली में आज भीख भी मिलती नहीं उन्हें
था कल तलक दिमाग जिन्हें ताजो-तख़्त का
मक्का गया मदीना गया कर्बला गया
जैसा गया था वैसा ही चल फिर के आ गया
मानिंद-ए-सुब्ह उक़दे न दिल के कभू खुले
जी अपना क्यूँ कि उचटे न रोज़े नमाज़ से
बे-सोज़ दिल किन्हों ने कहा रेख़्ता तो क्या
गुफ़्तार-ए ख़ाम पेश-ए अज़ीज़ाँ सनद नहीं
लुत्फ़-ए-सुख़न भी पीरी में रहता नहीं है ‘मीर’
अब शेर हम पढ़ें हैं तो वो शद्द-ओ-मद नहीं
फरहाद-ओ-कैस-ओ-मीर यह आवारगाने-इश्क़
यूं ही गए हैं सब की रही मन की मन के बीच
अब सब के रोजगार की सूरत बिगड़ गयी
लाखों में एक दो का कहीं कुछ बनाव है
देखा हमें जहाँ वो तहाँ आग हो गया
भड़का रखा है लोगों ने उस को लगा लगा
होता है शौक़ वस्ल का इन्कार से ज़ियाद
कब तुझ से दिल उठाते हैं तुम्हारी नहीं से हम
क्या लुत्फे-तन छुपा है मेरे तंगपोश का
उगला पड़े है जामे से उसका बदन तमाम
इक गुल ज़मी न वक़्फ़े के क़ाबिल नज़र पड़ी
देखा बरंगे-आबे-रवां यह चमन तमाम
साकी टुक एक मौसमे-गुल की तरफ़ तो देख
टपका पड़े है रंग चमन में हवा से आज
यूं बार-ए-गुल से अब के झुके है निहाले बाग़
झुक झुक जैसे करते हैं दो चार यार बात
दिल वो नगर नहीं, कि फिर आबाद हो सके
पछताओगे, सुनो हो, ये बस्ती उजाड़ कर
गैर अज़ ख़ुदा की जात घर में कुछ नहीं
यानी कि अब मकान मेरा लामकाँ हुआ
पाते हैं अपने हाल में मजबूर सब को हम
कहने को इख्तियार है पर इख्तियार क्या
मौसम है निकले शाखों से पत्ते हरे हरे
पौधे चमन में फूलों से देखे भरे भरे
दुनिया की कद्र क्या जो तलबगार हो कोई
कुछ चीज माल हो तो ख़रीदार हो कोई
इज़्ज़त भी बा'द ज़िल्लत बिसयार छेड़ है
मज्लिस में जब ख़फ़ीफ़ किया फिर अदब है क्या
तुम ने हमेशा जौर-ओ-सितम बे-सबब किए
अपना ही ज़र्फ़ था जो न पूछा सबब है क्या
है आशिक़ी के बीच सितम देखना ही लुत्फ़
मर जाना आखें मूँद के ये कुछ हुनर नहीं
क्यूँकर तुम्हारी बात करे कोई ए'तिबार
ज़ाहिर में क्या कहो हो सुख़न ज़ेर-ए-लब है क्या
याद उस की इतनी ख़ूब नहीं 'मीर' बाज़ आ
नादान फिर वो जी से भुलाया न जाएगा
हम ख़ाक में मिले तो मिले लेकिन ऐ सिपहर
उस शोख़ को भी राह पे लाना ज़रूर था
तुमने जो अपने दिल से भुलाया हमें तो क्या
अपने तईं तो दिल से हमारे भुलाइये
कैसे हैं वे कि जीते हैं सदसाल हम तो 'मीर'
इस चार दिन की ज़ीस्त में बेज़ार हो गए
दो दिन से कुछ बनी थी सो फिर शब बिगड़ गई
सोहबत हमारी यार से बेढब बिगड़ गई
बाहम सुलूक था तो उठाते थे नर्म गर्म
काहे को 'मीर' कोई दबे जब बिगड़ गई
जिन जिन को था ये इश्क़ का आज़ार मर गए
अक्सर हमारे साथ के बीमार मर गए
सद कारवाँ वफ़ा है कोई पूछता नहीं
गोया मता-ए-दिल के ख़रीदार मर गए
किन नींदों अब तू सोती है ऐ चश्म-ए-गिर्या-नाक
मिज़्गाँ तो खोल शहर को सैलाब ले गया
उसके फ़रोग-ए-हुस्नद से, झमके है सब में नूर
शम्म-ए-हरम हो या कि दिया सोमनात का
मरते हैं हम तो आदम-ए-ख़ाकी की शान पर
अल्लाह रे दिमाग़ कि है आसमान पर
शोख़ी तो देखो आप कहा आओ बैठो ‘मीर’
पूछा कहाँ तो बोले कि मेरी ज़ुबान पर
तुम को तो इल्तिफात नहीं हाले-ज़ार पर
अब हम मिलेंगे और किसू मेहरबान से
यारो मुझे मु'आफ़ रखो मैं नशे में हूँ
अब दो तो जाम खाली ही दो मैं नशे में हूँ
आ जायें हम नज़र जो कोई दम बहुत है याँ
मोहलत बसाँ-ए-बर्क़-ओ-शरार कम बहुत है याँ
इस बुतकदे में मानी का किस से करें सवाल
आदम नहीं हैं सूरत-ए-आदम बहुत है याँ
हम अपनी चाक जेब को सी रहते या नहीं
फाटे में पाँव देने को आए कहाँ से तुम
अब देखते हैं ख़ूब तो वो बात ही नहीं
क्या क्या वगर्ना कहते थे अपनी ज़बाँ से तुम
सर रख के उस की तेग़ तले मर चुको शिताब
याँ पांव पीट-पीट के मरना हुनर नहीं
आँखों में जी मेरा है इधर यार देखना
आशिक़ का अपने आख़री दीदार देखना
कैसा चमन कि हम से असीरों को मना है
चाक-ए-क़फ़स से बाग़ की दीवार देखना
दरिया-ए-हुस्न-ए-यार तलातुम करे कहीं
ख़्वाहिश है अपने जी में भी बोस-ओ-कनार की
मक़्दूर तक तो जब्त करूँ हूँ पर क्या करूँ
मुँह से निकल ही जाती है इक बात प्यार की
जीते रहे तो उस से हम-आग़ोश होंगे हम
लबरेज़ गुल से देखेंगे जेब-ओ-कनार को
मुक्तज़ब मुसम्मन मख़्बून मर्फूअ’ मख़्बून मर्फूअ’ मुसक्किन मुज़ाइफ़
फ़ऊल फ़ेलुन फ़ऊल फ़ेलुन // फ़ऊल फ़ेलुन फ़ऊल फ़ेलुन
121 22 121 22 // 121 22 121 22
ख़िलाफ़-ए-वादा बहुत हुए हो कोई तो वादा वफ़ा करो अब
मिला के आंखें दरोग़ कहना कहाँ तलक कुछ हया करो अब
ख़याल रखिए न सरकशी का सुनो हो साहिब कि पीरी आई
ख़मीदा क़ामत बहुत हुआ है झुकाए सर ही रहा करो अब
करो तवक्कुल कि आशिक़ी में न यूँ करोगे तो क्या करोगे
अलम जो यह है तो दर्दमंदो कहाँ तलक तुम दवा करोगे
जिगर में ताक़त कहाँ है उतनी कि दर्द-ए-हिज्राँ से मरते रहिए
हज़ारों वादे विसाल के थे कोई भी जीते वफ़ा करोगे
अख़ीर-ए-उल्फ़त यही नहीं है कि जल के आख़िर हुए पतंगे
हवा जो याँ की ये है तो यारो ग़ुबार हो कर उड़ा करोगे
बहार आई चलो चमन में, हवा के ऊपर भी रंग आया
कहां तलक गुल न होवे गुंचा, रहा मुदे मुँह सो तंग आया
वही है रोना वही है कुढ़ना वही है सोजिश जवानी की-सी
बुढ़ापा आया है इश्क़ ही में, पर मीर हम को न ढंग आया
मुज्तस मुसम्मन मख़्बून महज़ूफ़ मुसक्किन
मुफ़ाइलुन फ़इलातुन मुफ़ाइलुन फ़ेलुन
1212 1122 1212 22
रही न पुख़्तगी आलम में दौरे-ख़ामी है
हज़ार हैफ कमीनों का चर्ख़ हामी है
रहे ख़याल तनिक हम भी रू-सियाहों का
लगे हो ख़ून बहुत करने बे-गुनाहों का
असीरे ज़ुल्फ़ करे क़ैदी-ए-कमंद करे
पसंद उसकी है वह जिस तरह पसंद करे
सहर साबाद में चल जोर फूली है सरसों
हुआ है इश्क़ से कुल ज़र्द क्या बहार है आज
मत इन नमाज़ियों को ख़ानासाजे-दीं जानो
कि एक ईंट की खातिर ये ढाते हैंगे मसीत
कहा था हमने बहुत बोलना नहीं है खूब
हमारे यार को सो अब हमीं से बात न चीत
जफ़ाएँ देख लियाँ बेवफ़ाइयाँ देखीं
भला हुआ कि तेरी सब बुराइयाँ देखीं
शहाँ कि कोहल-ए-जवाहर थी ख़ाक-ए-पा जिन की
उन्हीं की आँखों में फिरते सलाईयाँ देखीं
रही नगुफ़्ता मेरे दिल में दास्ताँ मेरी
न इस दयार में समझा कोई ज़बाँ मेरी
उसी से दूर रहा अस्ल-ए-मुद्दआ जो था
गई ये उम्र-ए-अज़ीज़ आह रायगाँ मेरी
हमारे आगे तेरा जब किसू ने नाम लिया
दिल-ए-सितमज़दा को हम ने थाम थाम लिया
मेरे सलीक़े से मेरी निभी मोहब्बत में
तमाम उम्र मैं नाकामियों से काम लिया
भला हुआ कि दिल-ए-मुज़्तरिब में ताब नहीं
बहुत ही हाल बुरा है अब इज़्तराब नहीं
तड़प के ख़िर्मन-ए-गुल पर कभी गिर ऐ बिजली
जलाना क्या है मेरे आशियाँ के ख़ारों का
ख़फ़ीफ़ मुसद्दस सालिम मख़्बून महज़ूफ़ मुसक्किन
फ़ाइलातुन मुफ़ाइलुन फ़ेलुन
2122 1212 22
फ़िक्रे-तामीरे-दिल किसू को नहीं
ऐसी-वैसी बिनाएं क्या क्या हैं
जाए है जी निजात के ग़म में
ऐसी जन्नत गई जहन्नम में
इश्क़ क्या कोई अख्तियार करे
वही जी को मारे जिस को प्यार करे
कभू सच्चे भी हो कोई कबतक
झूठे वादों का ऐतबार करे
कुछ ख़बर होती तो न होती ख़बर
सूफि़याँ बे-ख़बर गए शायद
कहते हैं मरने वाले याँ से गए
सब यहीं रह गए कहाँ से गए
'मीर' अम्दन भी कोई मरता है
जान है तो जहान है प्यारे
हैरत आती है उसकी बातों पर
खुदसरी, खुदसिताई, खुदराई
नाज़ुकी उस के लब की क्या कहिए
पंखुड़ी इक गुलाब की सी है
'मीर' उन नीम-बाज़ आँखों में
सारी मस्ती शराब की सी है
आग थे इब्तिदा-ए-इश्क़ में हम
अब जो हैं ख़ाक इंतिहा है ये
बेखुदी ले कहाँ गई हमको
देर से इंतज़ार है अपना
वस्ल उस का ख़ुदा नसीब करे
'मीर' दिल चाहता है क्या क्या कुछ
यार ने हम से बे-अदाई की
वस्ल की रात में लड़ाई की
बाल-ओ-पर भी गए बहार के साथ
अब तवक़्क़ो नहीं रिहाई की
कोहकन क्या पहाड़ तोड़ेगा
इश्क़ ने ज़ोर-आज़माई की
वजह-ए-बेगानगी नहीं मालूम
तुम जहाँ के हो वाँ के हम भी हैं
अपना शेवा नहीं कजी यूँ तो
यार जी टेढ़े बाँके हम भी हैं
मर्ग इक मांदगी का वक़्फ़ा है
यानी आगे चलेंगे दम लेकर
पास-ए-नामूस-ए-इश्क़ था वर्ना
कितने आँसू पलक तक आए थे
इक निगह कर के उसने मोल लिया
बिक गए आह हम भी क्या सस्ते
दूर अब बैठते हैं मजलिस में
हम जो तुम से थे पेशतर नज़दीक़
शेर मेरे हैं सब ख़वास पसंद
पर मुझे गुफ़्तगू आवाम से है
क्या कहूँ तुम से मैं के क्या है इश्क़
जान का रोग है बला है इश्क़
कौन मक़्सद को इश्क़ बिन पहुँचा
आरज़ू इश्क़ मुद्दआ है इश्क़
शाम से कुछ बुझा सा रहता हूँ
दिल हुआ है चराग़ मुफ़्लिस का
देख तो दिल कि जाँ से उठता है
ये धुआं सा कहाँ से उठता है
यूं उठे आह उस गली से हम
जैसे कोई जहाँ से उठता है
ये तवाहुम का कारख़ाना है
याँ वही है जो ऐतबार किया
हम फ़क़ीरों से बे-अदाई क्या
आन बैठे जो तुमने प्यार किया
अब तो जाते हैं बुत-कदे से 'मीर'
फिर मिलेंगे अगर ख़ुदा लाया
दिल से शौक़-ए-रुख़-ए-निकू न गया
झाँकना ताकना कभु न गया
कुछ करो फ़िक्र मुझ दीवाने की
धूम है फिर बहार आने की
जो है सो पायमाल-ए-ग़म है 'मीर'
चाल बेडौल है ज़माने की
न निगह ने पयाम ने वादा
नाम को हम भी यार रखते हैं
ज़ोर-ओ-ज़र कुछ न था तो बारे 'मीर'
किस भरोसे पर आश्नाई की
सब मज़े दरकिनार आलम के
यार जब हमकिनार होता है
बेकली बेख़ुदी कुछ आज नहीं
एक मुद्दत से वो मिज़ाज नहीं
जो कहो तुम सो है बजा साहब
हम बुरे ही सही भला साहब
तेरे बालों के वस्फ़ में मेरे
शे'र सब पेचदार होते हैं
ख़ूब-रू सब की जान होते हैं
आरज़ू-ए-जहान होते हैं
क्या रहा है मुशायरे में अब
लोग कुछ जम्अ' आन होते हैं
मीर साहब ज़माना नाज़ुक है
दोनों हाथों से थामिए दस्तार
शिकवा ए आबला अभी से मीर
है पियारे हनोज़ दिल्ली दूर
मार्ग इक मांदगी का वक्फा है
यानी आगे चलेंगे दम लेकर
चश्मे-गुल बाग़ में मुदी जा है
जो बने इक निगाह कर लीजे
दूर बैठा ग़ुबार-ए-मीर उससे
इश्क़ बिन ये अदब नहीं आता
यही जाना कि कुछ न जाना हाय
सो भी इक उम्र में हुआ मालूम
कीसा पुर-ज़र हो तो जफ़ा-जूयाँ
तुम से कितने हमारी जेब में हैं
दिल ना बाहम मिले तो हिज्राँ है
हम वे रहते हैं गो कि पास ही पास
लुत्फ़ क्या हर किसू की चाह के साथ
चाह वह है जो हो निबाह के साथ
मुन्सरेह मुसम्मन मतव्वी मतव्वी मक्सूफ़
मुफ़्तइलुन फ़ाइलुन // मुफ़्तइलुन फ़ाइलुन
2112 212 // 2112 212
चर्ख़ पे अपना मदार देखिये कबतक रहे
ऐसी तरह कारोबार देखिये कबतक रहे
उससे तो अहदों करार कुछ भी नहीं दरमियान
दिल है मेरा बेकरार देखिये कब तक रहे
आँखे तो पथरा गयीं तकते हुए उसकी राह
शामो-सहर इंतज़ार देखिये कब तक रहे
इश्क़ में ऐ हमरहाँ कुछ तो किया चाहिए
गिरिया-ओ-शोर-ओ-फ़ुग़ाँ कुछ तो किया चाहिए
हाथ रखे हाथ पर बैठे हो क्या बेख़बर
चलने को है कारवां कुछ तो किया चाहिए
मैं जो कहा तंग हूँ मार मरूँ क्या करूँ
वो भी लगा कहने हाँ कुछ तो किया चाहिए
क्या करूँ, दिल खूँ करूँ, शेर ही मौजूं करूँ
चलती है जब तक जबाँ, कुछ तो किया चाहिए
ये तो नहीं दोस्ती हमसे जो तुमको रही
पास दिल-ए-दोस्ताँ कुछ तो किया चाहिए
मीर नहीं पीर तुम काहिली अल्लाह रे
नामे ख़ुदा हो जवां कुछ तो किया चाहिए
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जनाब अजय तिवारी साहिब आदाब,सच कहता हूँ,आप पर मुझे रश्क आने लगा है,कितना महत्वपूर्ण काम कर रहे हैं अदब(साहित्य)के लिये, लेकिन अफ़सोस उस वक़्त होता है कि जिनके लिए इतना किया जा रहा है उन्हें पढ़ने की भी फ़ुर्सत नहीं होती,लेकिन इससे भी क्या फ़र्क़ पड़ता है,'अभी कुछ लोग बाक़ी हैं जहाँ में' जो ऐसे काम की क़द्र अफ़ज़ाई करते हैं ।
भाई, बहुत ख़ूब क्या तारीफ़ करूँ इसकी, शब्द नहीं हैं मेरे पास,हालाँकि भी मैंने इस आलेख की एक भी पंक्ति नहीं पढ़ी है, लेकिन "ख़त का मज़्मूँ भाँप लेते हैं लिफ़ाफ़ा देख कर",मैं इसे ठहर ठहर कर पढ़ना चाहता हूँ,ताकि ये मेरे हाफ़िज़े में महफ़ूज़ रहे,विस्तृत टिप्पणी के लिए पुनः आऊँगा ।
आदरणीय समर साहब,
आपकी की उत्साहवर्धक टिप्पणी ने इस प्रस्तुति को सार्थक कर दिया. हार्दिक धन्यवाद.
जल्दी ही दीवान-ए-ग़ालिब मे इस्तेमाल बह्रों को उदाहरण के साथ पेश करने की कोशिश करूंगा.
सादर
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