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आ० ज्योत्सना जी, किसी कालजयी कृति के अंश अथवा उसके पात्र/पात्रों को विषय वस्तु बनकर पूर्व में भी लघुकथाएँ कही गईं है। मेरा मानना है कि ऐसा करने से विषय में नवीनता भी आएगी।
आ० ज्योत्स्ना जी, यह एक व्यवसायजनित जोखिम है, जिसके लिए एक रचनाकार को हर समय तैयार रहना चाहिए। वैसे भी अगर कोई इस बात को ही विवाद का विषय बना ले कि खाते समय किसी की क्यों मूछें हिल रही हैं, तो क्या कीजियेगा? नज़रअंदाज़ ही कीजियेगा न? क्या आपको लगता है कि मैने उस लघुकथा में जो कल्पना की, वह किसी भी दृष्टिकोण से विवादास्पद है?
लघुकथा लिखते समय एक रचनाकार को मुख्यत: ३ बातों का ध्यान रखना चाहिए:
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१. क्या लिखना है (अर्थात लघुकथा का कथानक)
२. क्यों लिखना है (अर्थात लघुकथा का उद्देश्य अथवा सन्देश)
३. कैसे लिखना है (अर्थात शिल्प शैली)
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इन तीनो में से यदि एक बिंदु भी उपेक्षित रह गया तो रचना बहुत जल्द दम तोड़ देगी।
यही सार याद रख ले तो लघुकथा सार्थक हो सकती है .
बहुत ही गहरी बात कही है आप ने आ योगराज प्रभाकर भाई साहब जी
हार्दिक आभार आ० ओमप्रकाश क्षत्रिय जी।
लघुकथा की कक्षा में मुझे स्थान देने के लिए हार्दिक आभार। इस पुनीत कार्य के लिए आप सभी एड्मिन्स को साधुवाद।
लघुकथा लेखन की बारीकियों पर बहुत सुन्दर चर्चा हुई है... बहुत से महत्वपूर्ण बिंदु पता चले
तथ्यपरक बिन्दुवत चर्चाएँ हमेशा ही समझ को विस्तार देती हैं...
लघुकथा विधा को एक वृहद परिपेक्ष में जानने समझने का अवसर प्रदान करता ये समूह सभी लघुकथा साधकों के लिए बहुत उपयोगी सिद्ध होगा.. ऐसा विश्वास है..
सादर
आ० कांता रॉय जी। कटाक्ष जब महज़ हास्य व्यंग्य बन कर रह जाये, तथा रचना पाठक को सन्न करने की बजाय केवल क्षणिक हंसी देने वाली हो तो वह लघुकथा न रह कर चुटकुला नुमा कोई चीज़ हो जाती है। एक सार्थक लघुकथा को पढ़कर या तो मन से "आह" निकलती है या "वाह", जबकि चुटकुला पढ़कर खी-खी-खी वाली हंसी।
रचना शैली भी बहुत दफा लघुकथा को चुटकुले का रूप दे देती है। उदाहरणस्वरूप
रमेश : बला बला बला बला बला ....
सुरेश : बला बला बला बला बला ....
रमेश : बला बला बला बला बला ....
सुरेश : बला बला बला बला बला ....
यह शैली लघुकथा की नहीं चुटकुले की होती है, ऐसी स्थिति में रचना ठीक ठाक होते हुए भी "चुटकुलानुमा" बन कर रह जाती है।
आ० कांता रॉय जी, करबद्ध निवेदन है कि मेरे नाम के साथ पूज्यनीय अथवा श्रद्धेय जैसे विशेषण मत लगाएँ।
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