सु्धीजनो !
दिनांक 21 फरवरी 2015 को सम्पन्न हुए "ओबीओ चित्र से काव्य तक छंदोत्सव" अंक - 46 की समस्त प्रविष्टियाँ संकलित कर ली गयी हैं.
इस बार प्रस्तुतियों के लिए एक विशेष छन्द का चयन किया गया था – कुकुभ छन्द.
कुल 11 रचनाकारों की 14 छान्दसिक रचनाएँ प्रस्तुत हुईं.
यह छन्दोत्सव जिन परिस्थितियों में आयोजित तथा सम्पन्न हुआ है, उन परिस्थितियों की तनिक चर्चा आवश्यक है.
मैं नयी दिल्ली के प्रगति मैदान में चल रहे ’विश्व पुस्तक मेला 2015’ के इतिहास में ’नवगीत विधा’ को लेकर पहली बार आयोजित परिचर्चा ’समाज का प्रतिबिम्ब हैं नवगीत’ में सहभागिता हेतु आमन्त्रित था. पैनल में मेरे अलावा देश के अन्य भागों से आये चार और आमन्त्रित नवगीतकार थे. मैं इस गरिमामय उपलब्धि के लिए अपने मंच ओबीओ का ऋणी हूँ, जिसने मेरे जैसे सामान्य अभ्यासी को इस काबिल बना दिया ! इसके अलावा उक्त विश्व पुस्तक मेले में मेरी अन्य व्यस्तताएँ भी थीं. फिर, अन्जन टीवी के एक कार्यक्रम के लिए बुलावा था. जहाँ के कार्यक्रम ’काव्यांजलि’ में मुझे रचनापाठ करना था. फिर, कार्यालय के कार्यों की अति व्यस्तता को संतुष्ट करती मेरी वापसी. आयोजन के समापन के दिन यानि शनीचर की रात मैं ट्रेन में था. नेट-सिग्नल पूरी तरह से समाप्त.
विश्वास है, मेरे आत्मीयजन मेरी विवशता को अपने हृदय में स्थान देंगे.
इस आयोजन के दौरान मुझसे कुछ प्रश्न छूट गये. उनका अपनी समझ भर उत्तर प्रस्तुत कर रहा हूँ –
एक बात, इस दफ़े आदरणीय योगराजभाईसाहब की अनुपस्थिति विशेष रूप से प्रभावी दिखी. साथ ही, आदरणीया प्राचीजी तथा गणेश भाईजी की व्यस्तता भी मुखर रही. किन्तु, इसी क्रम में मैं हृदय से धन्यवाद ज्ञापित करता हूँ आदरणीय गोपाल नारायणजी, आदरणीय मिथिलेशभाईजी, आदरणीय अखिलेशभाईजी, आदरणीय गिरिराजभाईजी, आदरणीय सत्नारायणजी, आदरणीय खुर्शीद भाई जैसे अति सक्रिय रचनाकर्मियों को, जिनके कारण मंच के आयोजन सरस और सहज ढंग से आयोजित हो रहे हैं. अलबत्ता, आश्चर्य होता है, उन सदस्यों की उपस्थिति को लेकर जो आयोजनों के दौरान मंच पर तो होते हैं लेकिन आयोजनों में कत्तई शरीक नहीं होते. इस विशिष्ट (विचित्र) सोच का कोई कारण हो तो वे ही बता सकते हैं.
मैं पुनः अवश्य स्पष्ट करना चाहूँगा कि ’चित्र से काव्य तक’ छन्दोत्सव आयोजन का एक विन्दुवत उद्येश्य है. वह है, छन्दोबद्ध रचनाओं को प्रश्रय दिया जाना ताकि वे आजके माहौल में पुनर्प्रचलित तथा प्रसारित हो सकें. वस्तुतः आयोजन का प्रारूप एक कार्यशाला का है. जबकि आयोजन की रचनाओं के संकलन का उद्येश्य छन्दों पर आवश्यक अभ्यास के उपरान्त की प्रक्रिया तथा संशोधनों को प्रश्रय देने का है.
वैधानिक रूप से अशुद्ध पदों को लाल रंग से तथा अक्षरी (हिज्जे) अथवा व्याकरण के लिहाज से अशुद्ध पद को हरे रंग से चिह्नित किया गया है.
आगे, यथासम्भव ध्यान रखा गया है कि इस आयोजन के सभी प्रतिभागियों की समस्त रचनाएँ प्रस्तुत हो सकें. फिर भी भूलवश किन्हीं प्रतिभागी की कोई रचना संकलित होने से रह गयी हो, वह अवश्य सूचित करे.
सादर
सौरभ पाण्डेय
संचालक - ओबीओ चित्र से काव्य तक छंदोत्सव
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1. आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी
प्रथम प्रस्तुति
मुझे उठाते, मुझे उड़ाते, सैर कराते बाबूजी।
नीलगगन कैसा होता है, मुझे दिखाते बाबूजी।।
सारा दिन दफ्तर में खटकर, फ़र्ज़ निभाते बाबूजी।
जीवन की बस आशाओं के, गीत सुनाते बाबूजी।।
इस रिश्ते के संवेदन पर, आज कलम कुछ लिखती है।
आज सहज ना छंद लगा है, आज न कविता दिखती है।।
जैसे तैसे जोड़ लगा के, छंद लिखा दो बाबूजी।
गलती कोई हो जावे तो, क्षमा दिला दो बाबूजी।।
द्वितीय प्रस्तुति
कभी-कभी तुतलाते हैं या कभी-कभी चुप रहते हैं
मम्मी-मम्मी, पापा-पापा, कितना प्यारा कहते हैं
पानी को मम खाने को भू, नए शब्द क्या गढ़ते हैं
पुस्तक लेकर झूठ-मूठ का, पापा जैसे पढ़ते हैं
गोदी लेलो, हमें उछालों, अक्सर जिद ये करते हैं
थोड़ा ऊँचा उछले तो फिर, हँसते-हँसते डरते हैं
लेकिन-वेकिन छोड़, भरोसा पापा पर जब होता है
डरते-डरते हँसता है पर, क्षण भर को कब रोता है
बादल, बिजली, बरखा, पानी, कितना मन हरषाते हैं
कागज़ की इक नाव बनाकर, पापा को ले जाते हैं
छप्पक-छप्पक ठुम्मक-ठुम्मक अजब-गज़ब का खेला है
हम भी लौटे बचपन में ये मस्ती वाला मेला है
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2. आदरणीय अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव जी
रोज तुम्हारे साथ खेलता, प्यार तुम्हीं से है ज़्यादा।
बच्चों जैसी बातें करके, मुझे हँसाते तुम दादा॥
घुटनों की पीड़ा अब कैसी, क्या सीढ़ी चढ़ पायेंगे।
शाम हो गई चलिए दादा, हम सब छत पर जायेंगे॥
उमड़-घुमड़ घिर आये बादल, मौसम बहुत सुहाना है।
चंदा तारे सभी छुपा ले, बादल बड़ा सयाना है॥
बाँहों में भर लेते मुझको, जब मैं रोते आता हूँ।
तुम बादल बन जाते दादा, मैं चंदा हो जाता हूँ॥
इतनी ऊँचाई पर चढ़कर, मैंने किया इरादा है।
मैं कूदूँ तुम मुझे थामना, डर कैसा जब दादा हैं।। .. (संशोधित)
आज कहानी बंदर वाली, हर दिन करते हो वादा।
तुम सो जाना जब आएगी, नींद मुझे गहरी दादा॥
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3. आदरणीय हरि प्रकाश दुबे जी
मेरे जीवन में तुम आए, हुये मारते किलकारी !
बाँध लिया है मोहपाश में, तुमने मुझको है भारी !!
कूदो तुम मेरी गोदी में , नहीं काम है यह भारी !
ऐसे ही होती है बेटा, जीवन भर की तैयारी !!
भरते किलकारी तुम्हें देख, जीवन मेरा बढ़ जाता !
गले लगाता हूँ जब तुमको, दिल मेरा है भर आता !!
जब देखूँ छवि तुममे अपनी,याद मुझे बचपन आता !
फिर से जवान हो जाता हूँ, मृत्यु भय नहीं सताता !!
मैंने तो जीवन जीत लिया, शुरू अब तुम्हारी पारी !
फूलों सा तुम सुंदर बनना , यही कामना बची हमारी !!
आसमान से ऊंचा उठना ,आशाएँ तुम पर सारी !
पर अभिमान कभी मत करना , यह प्रेरणा है हमारी !!
(संशोधित)
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4. आदरणीय गिरिराज भंडारी जी
माँ बच्चों को ममता देती, पिता उन्हें साहस देता
मन से हारे , तन से कोमल , बच्चों को ढाढस देता
कठिन समय में कठिन डगर में , खुद आगे आ जाता है
और बचा कांटों से आँचल , साफ साफ ले आता है
अपने अनुभव के प्रकाश से , अँधियारा उजला देता
अपनी महनत के पानी से , फल, निष्फल में ला देता
खुद का प्यार छिपाये हरदम, काम करे वो वैद्यों का
बांट सभी सुविधायें सबको , त्याग करे खुद साधों का
चार चार बच्चों को पाले , मात पिता रहकर भूखे
खुद गीले हो बरसातों में , बच्चों को रखते सूखे
लेकिन बच्चे चारों मिलकर , उनको पाल नहीं पाते
मन के सूने अँधियारे में , दीपक बाल नहीं पाते
(सशोधित)
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5. आदरणीय सत्यनारायण सिंह जी
खुली कला दीर्घा सम सुन्दर, लगता नील गगन सारा!
नित घन अभिनव कला दिखाये, कलाकार बन मतवारा!!
हाँथी घोड़े योद्धाओं के, चित्र खींचता मनहारी!
चोर सिपाही राजा रानी, दिखा रहा बारी बारी !१!
धरे परी का रूप सलोना, मोहक अद्भुत सुखकारी!
कभी उकेरे चित्र गगन में, दृश्य महा प्रलयंकारी!!
बदली में छिप चाँद चाँदनी, लिखते दिल का अफसाना!
इसी अदा पर मुग्ध चाँदनी, रिस रिस बाँटे नजराना!२!
देख नजारा नभ मंडल का, शिशु के मन कौतुक जागा!
बाल सुलभ तन गगन विहरता, बाँध चाह का मन धागा!!
मन बल जिनका ऊँचा होता, वही उड़ान भरें ऊँची!
यहाँ भरे पितु जोश बाल मन, वहाँ चितेरे की कूँची!३!
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6. आदरणीय खुर्शीद खैराड़ीजी जी
प्रथम प्रस्तुति
तेरा संबल मेरी बाँहें , तू नभ को छू आ प्यारे |
ओझल आँखों से मत होना , मेर्री आँखों के तारे ||
सागर मैं हूं गागर तू है , तुझको भरकर मैं रीतूं |
तुझमें मुझको पाए दुनिया , तू रह जाये मैं बीतूं ||
अंबर मैं हूं तू है तारा , रौशन तुझसे मन मेरा
गुलशन मैं हूं एक सुमन तू , महका घर-आँगन मेरा || ..
मेरे काँधे पर सोये तू , मेरी बाँहों में जागे |
फीके हैं सब सुख दुनिया के , मेरे इस सुख के आगे || ..
तुझमें अपना बचपन ढूंढूं , तुझसा था मैं मुझसा तू |
भरकर तुझको इन बाँहों में , हो जाते गम सारे छू | ..
वृक्ष घना मैं तू फल मेरा , तू कल मेरा कद लेगा |
आज चढ़ा है काँधे पर तू , कल काँधा मुझको देगा ||
(संशोधित)
द्वितीय प्रस्तुति
देखो बूढ़े दादा पर फिर छाई नई जवानी है
भरकर बाँहों में पोते को नभ छूने की ठानी है
याद मुझे भी आये दादा स्मृति ही बची निशानी है
फ़ानी है सब कुछ इस जग में बस यादें लाफ़ानी है
लाख घनेरे गम के बादल नील गगन पर छा जाये
सुख का सूरज तुम हो दादा तुमसे तम भी घबराये
जिन काँधों पर झूले पापा उन काँधों पर मैं झूलूं
नेह डोर है पक्की इतनी पींगे भर कर नभ छू लूं
अगर सुहाना हो मौसम सब बूढ़े बच्चे हो जाते
गोद उठाकर पोते-नाती, दादा-नाना इठलाते
फैली हो जब बाँहें इनकी नभ भी बौना लगता है
बड़े बुजुर्गों की छाया में स्वर्ग धरा पर सजता है
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7. आदरणीय अरुणकुमार निगम जी
कुकुभ छन्द – एक दृश्य
एक सरीखी प्रात: संध्या, जीवन की सच्चाई रे
एक सूर्य को आमंत्रण दे, दूजी करे विदाई रे
कालचक्र की आवा-जाही, देती किसे दिखाई रे
तालमेल का ताना-बाना, सुन्दर बुनना भाई रे
कुकुभ छन्द – दूसरा दृश्य
दादा की बाँहों में खेले, बड़भागी वह पोता है
एकल परिवारों में पोता, मन ही मन में रोता है
हर घर की यह बात नहीं पर, अक्सर ऐसा होता है
सुविधाओं की दौड़-भाग में,जीवन-सुख क्यों खोता है
कुकुभ छन्द – तीसरा दृश्य
पोता कूदे, दादा थामे, यही भरोसा कहलाता
यही भरोसा जोड़े रखता, मन से मन का हर नाता
ना मन में संदेह जरा-सा, और नहीं डर का साया
देख चित्र को मेरे मन में, यारों बस इतना आया
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8. आदरणीय डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी
प्रथम प्रस्तुति
प्रभा शांति की दूर हुयी अब दिखते है काले साए
मेघाछन्न हुआ अम्बर भी बादल विपदा के छाये
वर्तमान है शिशु अबोध सा बालक का मन घबराया
अंधकारमय है भविष्य भी समझ नही वह कुछ पाया
उहापोह में फँसा हुआ था पर उसका चेतन जागा
सत्वर निर्णय लिया बाल ने द्वंद वही तत्क्षण भागा
कूद पड़ा सम्पूर्ण वेग से वह भविष्य की बाहों में
अब चाहे जो बाधा आये इस उड़ान में राहो में
वर्तमान यह जब भविष्य की दृढ बाँहों में आयेगा
रूप् बदलकर स्वतः भविष्यत् वर्तमान बन जायेगा
क्रिया शुरू हो चुकी कार्य में देखो यह कब ढलता है
कालचक्र इस संसृति में प्रिय इसी भांति तो चलता है
द्वितीय प्रस्तुति
श्वेत-श्याम घनघोर घटा अब नभ मंडल में छायी है
कुछ रहस्यमय संकेतो को प्रकृति यहाँ पर लायी है... (संशोधित)
अन्धकार का राज्य घना है तिमिर चतुर्दिक है फैला
धरती का आँचल भी मानो हुआ अभी मैला-मैला
मन में यदि विश्वास प्रबल हो साहस बढ़ निश्चय जाता
फिर संकट में जोखिम लेना हर प्राणी को आ जाता
अंधकार में कूद पड़ा जो उस अबोध की यह छाया
अभिभावक भी उसे थामने हित रोमांचित हो आया
ईश्वर जाने इन दोनों की क्या है ऐसी मजबूरी
और हुयी क्या अभिरक्षा की दुर्गम अभिलाषा पूरी
श्याम-चित्र यह प्रश्न अधूरा छोड़ यहाँ पर है जाता
निहित सफलता है साहस में पर अनुभव यह बतलाता
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9. आदरणीय लक्ष्मण रामानुज लडीवाला जी
गिर न जाऊँ मुझको पकड़ों, कूद रहा मै भाई जी
कूद रहा हूँ मै ऊपर से, मुझे झेलना भाई जी |
डरने की कोई बात नहीं,इतनी शक्ति भुजाओं में
राज दुलारा है तू मेरा, आ जा मेरी बाँहों में ||
सूरज सा मन आज खिला है, देख होंसला ये तेरा
नाज हमें है बेटा तुझपर, ताकतवर बेटा मेरा |
देख सुहाने मौसम को यूँ, तुझ में छायी मस्तानी
अश्क छलकते है नयनों से, है ये खुशियों का पानी ||
मस्ती में तू झूम रहा है, लगता है सबको प्यारा
अम्मा का इकलौता बेटा, उसकी आँखों का तारा |
करों न अब यूँ और तमाशा, कल होगा फिर उजियारा
घिर घिर आते है अब बादल,होने को अब अँधियारा ||
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10. आदरणीय दिनेश कुमार जी
बचपन में तो खूब मजे थे, रोज़ झूलते बाहों में
काँटे ही काँटे है अब तो, इस जीवन की राहों में
मैं भी अपने मात पिता की आँखों का इक तारा था
जैसे मुझको बेटा प्यारा, मैं भी उनका प्यारा था
दादा दादी क्या होते हैं , मेरा बेटा क्या जाने
जिन रिश्तों को कभी न देखा, कैसे उनको पहचाने
मेरा बेटा भी दादा की, बाँहों में खेला होता
कभी न फिर मैं अन्तर्मन में, घुट घुट कर ऐसे रोता
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11. आदरणीय रमेश कुमार चौहान जी
नीले नभ से उदित हुये तुम, आभा सूरज सा छाये ।
ओठो पर मुस्कान समेटे, सुधा कलश तुम छलकाये ।।
निर्मल निश्चल निर्विकार तुम, परम शांति को बगराओ ।
बाहों में तुम खुशियां भरकर, मेरे बाहो में आओ।।
ओ मेरे मुन्ना राजकुवर, प्राणो सा तू प्यारा है ।
आजा बेटा राजा आजा, मैंने बांह पसारा है ।।
तुझे थामने तैयार खड़ा, मैं अपना नयन गड़ाये ।
नील गगन का सैर करायें, फिर फिर झूला झूलाये
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आदरणीया वन्दनाजी,
ओबीओ पाठक-सदस्यों और प्रबन्धन-सदस्यों की क्रमशः रुचियों तथा आवश्यकताओं का सम्मान करता हुआ सहमति और साहचर्य से उत्तरोत्तर अग्रसरित होते हुए मंच की तरह उभर रहा है.
पाठकों-सदस्यों की ओर से अब तक ऐसे कई प्रस्ताव आये हैं जो मंच के प्रबन्धन द्वारा सार्थक समझे गये और आज व्यवहार में लाये जा रहे हैं. आपका भी प्रस्तुत सुझाव बहुत ही सकारात्मक है तथा ’सीखने-सिखाने’ की प्रक्रिया को संतुष्ट करता हुआ सुझाव है.
मैं आपके सुझाव पर सक्रिय सदस्यों तथा प्रबन्धन के अन्य सदस्यों से उनके विचार और हामी लेना चाहूँगा.
सादर
आदरणीय सौरभ पाण्डेय सर ,
आदरणीया वन्दना जी का सुझाव प्रशंसनीय है , और जैसा की आपने कह ही दिया है यह ’सीखने-सिखाने’ की प्रक्रिया को संतुष्ट करता हुआ सुझाव है' अत: इसे अपनाया जा सकता है !
सादर !
प्रस्ताव पर मिला आपसे अनुमोदन उत्साहवर्द्धक है, आदरणीय हरि प्रकाश जी.
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