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भारत वर्ष में जो राजनीतिक व्यवस्था है वह लोकतंत्रात्मक है। इसमें जनता के द्वारा जनता की और जनता के लिए सरकार बनाई जाती है। भारत वर्ष को आजाद हुए आधी शताब्दी से अधिक गुजर चुका है। इस दौरान कई चुनाव ऐतिहासिक हुए हैं जिनका परिणाम जनता के लिए विस्मय कारी व क्रांतिकारी रहा है। इस दौरान जनता की जागरूकता का परिचय मिला है जिसमें वह अपने अधिकारों का किस प्रकार उपयोग करती है। उसके अधिकार को पहचानने में हमे मदद करनी चाहिए। यह सच भी उभर कर सामने आता है। भारत वर्ष के लोगों को अपनी शक्ति का एहसास होता है। लेकिन अफसोस वे उसका उपयोग कैसे करें व उनकी सुरक्षा के बारे में उनकी भ्रान्ति को दूर करने का कोई उपाय नहीं किया जाता। इसलिए चुनाव के समय ही नहीं जनता को प्रत्येक समय चुनावी समझ और निर्भयता की आवश्यकता है। जनता के मन में जो भय है उसे दूर करने का उपाय किसके जिम्मे है इसको तय करना ही हमारी मनसा है।
जनता के दरबार में जब पांच साल के बाद प्रत्याशी पहुंचता है तो जनता उसका स्वागत किस प्रकार करती है । वह उससे खिन्न होती है या टालू मिक्सर देकर दूर करती है या उससे बात करना अपनी तौहीन समझती है। जनता उससे प्रेम करती है उसके बारे में अच्छे विचार रखती है या उससे अपनी अपेक्षाओं की पूर्ति में सहजता पाने का प्रयास करती है। आजकल चुनाव के प्रत्याशी जब जनता के सामने आते है तो उनका रूख ऐसा होता है कि जनता का सबकुछ करना ही उनकी इच्छा है। जनता के सामने भी वे ऐसा ही इरादा व्यक्त करते हैं । लेकिन सच्चाई जो है वह जब सामने आती है तो जनता की आंखे ख्ुाली रह जाती हैं। वह जब उसके पास अपने काम के लिए जाती है तो वह ऐसा झिड़क कर बात करता है कि वह उससे काम लेने की कौन कहे यह भी चाहती है कि वह दुबारा उसके सामने पड़े। ऐसे प्रत्याशी को भी जब वह दूसरी बार अपने सामने उसी प्रकार हाथ जोड़े देखती है तो उसके ऊपर क्या गुजरती है इसे कोई भुक्त भोगी ही जान सकता है। इसके बावजूद प्रत्याशीगण अपना प्रचार ही नहीं करते बल्कि चुनाव में अपनी अहमियत जाहिर करते हैं और चुनाव जीत कर पुनः उसकी प्रकार का अखड़पन का व्यवहार करते हैं। जनता का दुख दर्द कौन दूर करेगा। वे अपने दुख को दूर करने में लग जाते हैं और जिस किसी प्रकार उन्हें अपनी जेब भरने का मौका मिलता है वे बेखौफ जुट जाते हैं। जनता उनसे क्या चाहती है और वे क्या वादा किये है इसकी कोई परवाह नहीं करते।
जनता के सामने कोई आदर्श नहीं है जो लोग अगुवाई करते हैं वे इतना स्वार्थी हैं कि उनके अनुयाई यदि ऐसा करते है तो कोई गलत नहीं है। जनता जब देखती है कि ऊपर का नेता भ्रष्टाचारी है तो वह भी भ्रष्टाचार को अच्छा समझ कर व्यवहार करती है। ऐसे में कोई इमान दार है तो उसका जीना मुश्किल हो जाता है। वह विवश है उन भष्टाचारियों का शिकार होने के लिए और भ्रष्टाचार के बाद जो परिणाम होता है उसे भुगतना पड़ता है। इसलिए जनता का नेतृत्व करने वाले जब तक नहीं सुधरते तब तक जनता का दुख दर्द इमानदारी से दूर नहीं हो सकता है। आप को यह देखना पड़ेगा कि भ्रष्टता के साथ जो समाज जी रहा है उसका हाल किसी प्रकार सुधर नहीं सकता वह परेशान ही रहता है। इसलिए इमानदारी के साथ जीने का प्रयास करना हमारा धर्म है यह समझाने के लिए हमें पहले इमानदार होना पड़ेगा लेकिन समाज में इमानदार का गुजर होना मुश्किल होने के कारण क्या कोई उपाय ऐसा है जिससे इमानदारी भी बची रहे और भ्रष्टाचारियों के बीच से निकल भी जाया जा सके। इसलिए ईमानदार लोगों की संख्या बढे इसका प्रयास करना होगा। इसे कौन करेगा? इस काम को करने के लिए जो त्याग व तपस्या करना होगा उसके लिए कौन तैयार है पुराने लोगों के बारे में जो जानकारी आती है उससे कितने परिचित हैं। आये दिन किसी न किसी तरह का भ्रष्टाचार उजागर होता है और उससे जो जनता को परेशानी होती है उससे उसे बचाने का प्रयास कौन करता है। जो ऐसा है उसे तो भ्रष्टाचारियों का द्वन्द्व झेलना पड़ता है। उसे यदि कामयाबी नहीं मिलती है तो उसका प्रभाव जनता पर इतना बुरा पड़ता है कि जनता को अपना रास्ता नहीं मिल ता है।
इसलिए जनता के सामने इसके बाद कोई रास्ता नहीं बचता है कि भ्रष्टाचारियों से बचने के लिए उसका नेतृत्व ऐसा आदमी करे जो त्याग करे और बलिदानी हो तथा बुद्धिमानी पुर्वक उसका आंदोलन का संचालन कर सके।
सत्ता परिवर्तन से कुछ नहीं होने वाला है । हृदय परिवर्तन जब होगा तो संपूर्ण क्रांति आ सकती है। आजादी की लड़ाई जीति जा सकती है।

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