महा प्रभु वल्लभाचार्य का कथन है – जीवाः स्वभावन्तो दुष्टाः , अर्थात जीव स्वभाव से ही दुष्ट प्रकृति का होता है दोषपूर्ण प्रवृत्तियों के कारण वह तमाम अन्य गलतियाँ करता है , नियमों के विरुद्ध , संस्कारों के विपरीत कार्य करता है । इसी संबंध मे गोस्वामी तुलसी दास जी का कथन है :-
भूमि परत भा ढाबर पानी । जनु जीवहि माया लपटानी ॥
जीव वैसे तो परमात्मा का अंश होने के कारण शुद्ध बुद्ध चैतन्य है किन्तु धरती पर जन्म लेने के पश्चात माया उस जीव को अपने मे समेट लेती है , यह जाल नाना प्रकार के दोष युक्त है जैसे काम, क्रोध, मद , मोह , दम्भ इत्यादि । गोस्वामी जी ने अपनी बात को बादल से गिरने वाली बूंद के बिम्ब द्वारा समझाया कि जैसे भूमि के स्पर्श से पहले बूंद पवित्र और स्वच्छ है परंतु धरती पर गिरते ही वह अस्वच्छ हो गई दोषयुक्त हो गई । मनोविज्ञान और मानव शास्त्र दोनों ही इन दोषों को जीवन की मूल प्रवृत्ति कहते है । हालांकि भिन्न भिन्न मनोवैज्ञानिकों ने मूल प्रवृत्तियों की संख्या और पहचान भिन्न भिन्न रूपों मे की है । विदेशी मनोवैज्ञानिक फ्रायड ने तो सेक्स प्रवृत्ति पर इतना ज़ोर दिया कि मनुष्य के सभी चेतन और अचेतन व्यवहार के मूल मे वह उसी को निर्णायक मानता है , परंतु अन्य मानवशास्त्रियों और मनोवैज्ञनिकों ने भूख , काम , प्रभुत्व कामना , भाय , गौरव , लोभ , आराम और जिज्ञासा को मनुष्य की मूल प्रवृत्त माना है । भूख, नींद, डर , काम जैसी वृत्तियों मे मनुष्य और जानवरों की प्रवृत्तियाँ एक जैसी ही है , या शायद उससे भी अधिक आक्रामक और विध्वंसक ।
विचार करने वाली बात ये है कि इतने दोषों से भरे इस मनुष्य देह को गोस्वामी जी ने – साधन धाम , विबुध दुर्लभ तनु कहा है ।
ऐसी क्या विशेषता इस मनुष्य शरीर मे है जो इसे इतने विकारों के बावजूद सबसे बड़ा कहा गया है ? इस संबंध मे नीति वाक्य उत्तर देता है – धर्मो हि तेषामधिको विशेषो धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः ।
अर्थात – वह विशेषता है धर्म , धर्म से विहीन मानव पशु के समान है ।
यहाँ मुश्किल बात ये है कि धर्म को आजकल अङ्ग्रेज़ी के रिलीजन शब्द के अर्थों मे खो गया है।...................
क्रमशः
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