For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

ओबीओ लखनऊ चैप्टर की साहित्य संध्या माह जुलाई 2019 – एक प्रतिवेदन       :: डॉ. गोपाल नारायन श्रीवास्तव

सावन का महीना I ग्रामीण अंचल में इन दिनों मल्हार गाया जाता है I कृष्ण पक्ष की एकादशी अर्थात 28 जुलाई 2019 के सायं 4 बजे ओबीओ लखनऊ चैप्टर की साहित्य संध्या 37, रोहतास एन्क्लेव, फैजाबाद रोड (डॉ. शरदिंदु जी के आवास) पर ग़ज़ल के सुकुमार गायक आलोक रावत ‘आहत लखनवी’ के सौजन्य से आयोजित हुई I इस कार्यक्रम की अध्यक्षता गाजियाबाद से पधारे वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. धनंजय सिंह ने की I संचालन की वल्गा मनोज शुक्ल ‘मनुज’ ने संभाली I    

कार्यक्रम के प्रथम चरण में डॉ. शरदिंदु मुकर्जी ने अपनी दो रचनाओं का पाठ किया I पहली रचना का शीर्षक था – “आँखमिचौनी” I इस कविता पर उपस्थित सभी सदस्यों ने अपने विचार रखे, जिसकी मूल भावना यह थी कि रचना दार्शनिक भावनाओं से पूर्ण है. उक्त रचना में कवि ने “तुम” कह कर किसे सम्बोधित किया है इस विषय पर कुछ मतभेद रहा. अंत में कवि ने स्वयं स्पष्ट किया कि वह ईश्वर से वार्तालाप कर रहा है और कविता की मूल भावना जीवन-मृत्यु के चक्र को पहचान कर ईश्वर के साथ आँखमिचौनी खेलने का है. वह इंगित करता है कि ईश्वर और ईश्वर की सृष्टि एक दूसरे के पर्याय हैं.

दूसरी कविता थी – “लखनऊ रेसीडेंसी में” I हम जानते हैं कि लखनऊ रेसीडेंसी भारतीय क्रांतिकारियों का एक स्मारक और सत्तावनी क्रांति की अमूल्य धरोहर है I इस ऐतिहासिक ध्वंसावशेष को देखने दूर-दूर से लोग आते हैं और गौरवान्वित होते हैं, किन्तु कुछ दूषित मानसिकता वाले हृदयहीन एवं भावशून्य व्यक्ति इन स्मृति-चिह्नों को अपने नाम, शेरो-शायरी, मांसल प्रेम की अभिव्यक्ति और कदाचित अमर्यादित भाषा के प्रयोग से अपवित्र करते हैं I कवि को यह कृत्य बर्बरतापूर्ण लगता है I ऐसे पूत-पावन तीर्थ में इस प्रकार के कृत्य राष्ट्रीय चेतना से अनुप्राणित किसी भी व्यक्ति के लिए पीड़ादायी हो सकते हैं I इस कविता में उसी पीड़ा का मार्मिक चित्रण हुआ है I डॉ. अशोक शर्मा को बर्बरता शब्द पर आपत्ति थी I उनका मानना था कि लोगों के आपत्तिजनक कृत्य अज्ञानता, हृदयहीनता, मूर्खता और टुच्ची सोच के पर्याय तो हो सकते हैं, पर यह बर्बरता नहीं है I शब्दकोश में बर्बरता का अर्थ जंगलीपन, असभ्यता और उजड्डपन भी है । अतः डॉ. शरदिंदु का शब्द-प्रयोग असंगत नहीं कहा जा सकता I इस संबंध में कार्यक्रम के अध्यक्ष डॉ. धनंजय सिंह के विचार भी ध्यानव्य हैं कि कोई भी डिक्टेटर अपनी समझ से बर्बरता नहीं करता I उसी प्रकार रेसीडेंसी में भी ऐसा कृत्य करने वाले वास्तव में जानते ही नहीं कि वे ऐसा आचरण राष्ट्रीय सम्मान के विरुद्ध कर रहे हैं I     

कार्यक्रम के दूसरे सत्र में काव्य पाठ का शुभारम्भ अशोक शुक्ल ‘अनजान’ ने अपने छंद से इस प्रकार किया –

कुछ लोग बनते है खुद में सुजान और दूसरों को मानते हैं न्यून सूर्य ढलता I    

शायद उन्हें न भान अभी इस बात का है कवि मन रवि तेज से भी तेज चलता I   I    

दूसरे कवि थे हास्य रस में अपनी पहचान बना चुके कवि मृगांक श्रीवास्तव I इन्होंने हास्य रस में लीक से हटकर एक अद्भुत कविता सुनाई जो लोगों को लोट-पोट कर गयी I इस कविता की बानगी प्रस्तुत है -

जो रहती कभी दिल में / चाँद सरीखी  / जिससे शादी न हो पाने से / मैं हुआ था बहुत दुखी / उम्र भर जिसकी / चाँदनी दिल में बसाये रहा / वो कल अचानक सहारागंज में / अपने तीन उपग्रहों के साथ  / परिक्रमा करती दिखी I  

कवयित्री नमिता सुंदर की भाव प्रवणता उनकी विशेषता है I अपनी संप्रेषण शक्ति से वह सीधे श्रोता के मन में जगह बनाती हैं  I उनकी कविता का एक नमूना देखिये -

सृजन

मेरी लहू में बहता है

मेरी कोख में पनपता है

कवयित्री कुंती मुकर्जी उन चुनिंदा कवयित्रियों में से हैं जिनकी कविता में दार्शनिक भावों की झलक मिलती है और यह भाव उनकी कविता की प्रस्तावना से ही मुखर हो उठता है, जब वे कहती हैं कि –

मैंने लिखी है

रेत पर

अपनी जीवन गाथा 

डॉ अशोक शर्मा ने बड़ी सामयिक और साथ ही सर्वकालिक चिंता की पेशकश कुछ इस प्रकार की -

अपनी रोटी सिंक जाए बस इसकी जल्दी में

औरों के घर आग लगाया करते हैं कुछ लोग I    

ग़ज़लकार आलोक रावत ‘आहत लखनवी’ ने तहद में अपनी ग़ज़ल पढ़ी, जिसके दो शेर इस प्रकार हैं –

हमें तो सामने से ही मज़ा आता है लड़ने में 

किसी पर पीठ पीछे वार हम करते तो क्यूँ करते I    

हमें मालूम था सबके लिए ये जानलेवा है

तो नफरत की फसल तैयार हम करते तो क्यूँ करते I    

डॉ. अंजना मुखोपाध्याय ने ‘संस्कार‘ से अनुप्राणित होकर घर के आंगन में मांगलिक रंगोली सजाने का उपक्रम इस प्रकार किया –

संस्कार

प्रथाओं की लकीरों से सींचा अपने घर का आँगन

सुमंगल रंगोली सजाये दिव्यता दामन 

श्रीमती कौशाम्बरी सिंह ने नारी मन में उठते विद्रोह और उस स्थिति में मर्यादा अथच सीमा रेखा को पार करने की उद्दाम स्थिति का जिक्र इस प्रकार किया –

साहस क्यों दुस्साहस बन जन्म ले रहा अंतर्मन में

उच्छ्रंखलता ललकार रही है पार करूँ सारी सरहद मैं I

डॉ. शरदिंदु मुकर्जी ने ‘औकात’ शीर्षक से अपनी कविता सुनायी I  इस कविता में पांच बंद हैं और उनमे औकात के विभिन्न स्तर हैं I ये सारे ही स्तर प्रकृति के उपादानों से उपजते हैं जो कवि को उसकी औकात बताते हैं, सिखाते हैं, दिखाते हैं, सुनाते हैं और फिर अंत में एक नयी औकात दिलाते भी हैं I इसी नयी औकात की अभिव्यंजना इस प्रकार है -

समय की धार पर / अँधेरे का आँचल पकड़े / मैं बैठा रहा. / बैठा रहा मैं / अपनी इच्छाओं का दीप जलाकर / अडिग, अचंचल / प्राची में उगती / स्वर्णिम छटा के मधुर स्पर्श ने / मुझको  / एक नयी औक़ात दिला दी.

 संचालक मनोज शुक्ल ’मनुज’ ने अपनी कविता में जीवन की भूल-भुलैय्या में उलझे व्यक्ति की मानसिकता को कुछ इस प्रकार रूपायित किया –

चिंतन सोया, बुद्धि अचंभित, पागल मन कुछ-कुछ घबराया I    

मैंने जीवन पृष्ठ टटोले, सब अतीत के पन्ने खोले I    

फिर भी समझ न कुछ भी आया, लगता पूरा जग भरमाया I   I    

ग़ज़लकार भूपेन्द्र सिंह ‘होश’ की ग़ज़ल में सत्य के अनुयायी की मनोदशा का चित्रण हुआ है, जिसे शूल भी फूल लगते हैं I यथा-

मैं तो सच के साथ था पत्थर मुझे था जब लगा I    

हाँ तभी तो मुझको पत्थर फूल से प्यारा लगा II    

डॉ. गोपाल नारायण श्रीवास्तव ने ‘का वर्षा जब कृषी सुखाने’ की भावना को अपनी ग़ज़ल में कुछ इस ढंग से रूपायित किया आँसुओं में थे विरह के गीत जो मेरे ढले

उम्र की काली अमावस में तुम्हें भाये तो क्या ?

मैं क्षितिज को पार करके आ गया हूँ इस तरफ

तुम अगर भागीरथी का स्रोत भी लाये तो क्या ?

कवयित्री संध्या सिंह जो अपनी बात प्रायशः प्रतीक एव बिंब के माध्यम से करती हैं, उनकी एक प्रतीक योजना इस प्रकार है रात मैंने दर्द के कुछ टुकड़े पिघलाकर

तकिये में छुपाये थे,

सुबह धूप ने माँग लिए

अंत में अध्यक्ष डॉ. धनंजय सिंह ने अपनी लोकप्रिय ग़ज़ल ‘साँप’ का पाठ इस प्रकार किया-

मैं भला चुप क्यों न रहता मुझको तो मालूम था

नेवलों के भाग्य का अब फैसला करते हैं साँप।

डर के अपने बाजुओं को लोग कटवाने लगे

सुन लिया है, आस्तीनों में पला करते हैं साँप।

आलोक रावत ‘आहत लखनवी’ का आतिथ्य बहुत शानदार था I कोल्ड ड्रिंक से लेकर चाय तक की अच्छी व्यवस्था थी I मैं भी उसका लुत्फ़ ले रहा था I  मगर मेरे जेहन में मेरी एक पुरानी ग़ज़ल उभर रही थी जो मैंने अध्यक्ष डॉ. धनजय सिंह की ‘साँप’ कविता से अनुप्राणित होकर लिखी थी I उसकी चंद पंक्तियाँ इस प्रकार हैं -

अब बचाकर जान देखो भागता है आदमी 

फन उठाये मिल रहे हैं हर कही डगरों में नाग I    

हो सके तो बाज आओ प्यार से इनके बचो

कौन जाने दंश दें कब झूमकर अधरों में नाग II   (स्वरचित )

(मौलिक/अप्रकाशित )

Views: 343

Attachments:

Reply to This

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity

pratibha pande replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-124 (प्रतिशोध)
"आदरणीय  उस्मानी जी डायरी शैली में परिंदों से जुड़े कुछ रोचक अनुभव आपने शाब्दिक किये…"
Thursday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-124 (प्रतिशोध)
"सीख (लघुकथा): 25 जुलाई, 2025 आज फ़िर कबूतरों के जोड़ों ने मेरा दिल दुखाया। मेरा ही नहीं, उन…"
Wednesday
Admin replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-124 (प्रतिशोध)
"स्वागतम"
Tuesday
सुरेश कुमार 'कल्याण' posted a blog post

अस्थिपिंजर (लघुकविता)

लूटकर लोथड़े माँस के पीकर बूॅंद - बूॅंद रक्त डकारकर कतरा - कतरा मज्जाजब जानवर मना रहे होंगे…See More
Tuesday

सदस्य कार्यकारिणी
गिरिराज भंडारी commented on गिरिराज भंडारी's blog post तरही ग़ज़ल - गिरिराज भंडारी
"आदरणीय सौरभ भाई , ग़ज़ल की सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार , आपके पुनः आगमन की प्रतीक्षा में हूँ "
Tuesday

सदस्य कार्यकारिणी
गिरिराज भंडारी commented on गिरिराज भंडारी's blog post तरही ग़ज़ल - गिरिराज भंडारी
"आदरणीय लक्ष्मण भाई ग़ज़ल की सराहना  के लिए आपका हार्दिक आभार "
Tuesday
Jaihind Raipuri replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-181
"धन्यवाद आदरणीय "
Jul 27
Jaihind Raipuri replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-181
"धन्यवाद आदरणीय "
Jul 27
Jaihind Raipuri replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-181
"आदरणीय कपूर साहब नमस्कार आपका शुक्रगुज़ार हूँ आपने वक़्त दिया यथा शीघ्र आवश्यक सुधार करता हूँ…"
Jul 27
Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-181
"आदरणीय आज़ी तमाम जी, बहुत सुन्दर ग़ज़ल है आपकी। इतनी सुंदर ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें।"
Jul 27
Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-181
"आदरणीय लक्ष्मण धामी जी, ​ग़ज़ल का प्रयास बहुत अच्छा है। कुछ शेर अच्छे लगे। बधई स्वीकार करें।"
Jul 27
Aazi Tamaam replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-181
"सहृदय शुक्रिया ज़र्रा नवाज़ी का आदरणीय धामी सर"
Jul 27

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service