रात के करीब 11 बज रहे थे। उस वक्त मैं इलाहाबाद में हिन्दुस्तान अखबार में खबरों के मकड़जाल में उलझा था। अब जो साथी पत्रकारिता जगत से जुड़े हैं, खासतौर से डेस्क पर। वह तो जानते हैं रात का समय कितना व्यस्ततम माना जाता है। इसी बीच अचानक एक फोन ने सबको कुछ पल के लिए स्तब्ध कर दिया। सूचना मिली की साथी उर्फी रिजवान सड़क हादसे में गं•ाीर रूप से जख्ती हो गए हैं। जल्दी-जल्दी काम निपटाने के बाद स•ाी लोग अस्पताल की ओर •ाागे। वाकई उर्फी की हालत नाजुक थी। सांसे चल रहीं थीं बस। वह हंसमुख चेहरा वेंटिलेटर पर एक जिंदा लाश की तरह पड़ा था। अपने पत्रकारिता के कॅरिअर में हमें इस दूसरे घटना से बहुत पीड़ा हुई थी। इसके पहले प्रतापगढ़ जिले के ब्यूरो चीफ अमरेश मिश्रा जी की सड़क हादसे ने मौत ने आहत किया था। इसके बाद उर्फी के साथ हुए हादसे ने। लगातार उक हफ्ते तक जंग लड़ा उर्फी ने पर, उस जंग में हम सबको सिर्फ मायूसी हाथ लगी। उर्फी तुम सुन रहे हो न... चिट्ठी न कोई संदेश, जाने वो कौन सा देश... जहां तुम चले गए...
‘उर्फी रिजवान...कैसे हो मेरी जान...’
आॅफिस के गेट से जैसे ही इंट्री होती तो सबसे पहले रिशेप्शन पर दुबले-पतले और सुंदर नौजवान उर्फी रिजवान से ही मुलाकात होती थी। चेहरे पर हमेशा मुस्कान। सच बताऊं तो लिखते समय उर्फी का हंसता हुआ चेहरा ही नजर आ रहा है। हाथ मिलाने के बाद तेज आवाज में एक ही बात जुबां से निकलती थी। उर्फी रिजवान...कैसे हो मेरी जान...। इतना सुनते ही सब आॅफिस में केवल ठहाके लगाते थे। उर्फी •ाी मुस्कुराने के अलावा कोई जवाग नहीं दोता था। उसकी मुस्कान ने मेरा ही नहीं पूरे आॅफिस की दिल जीत लिया था। उर्फी वाकई तुम बहुत याद आते हो। •ागवान से कामना करता हूं दोस्त तुम्हारी आत्मा को शांति मिले। पर, यूं अकेला छोड़कर जाना दोस्ती नहीं कहलाती है।
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सदस्य कार्यकारिणीमिथिलेश वामनकर said…
आपका अभिनन्दन है.
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