Added by Dr T R Sukul on October 29, 2015 at 10:03pm — No Comments
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कल, ए काल!
मैं, तेरे साथ ही आया था।
वादा भी था, साथ साथ चलने का , चलते रहने का।
आज,
तू मुझसे कितना आगे निकल गया.....!
नहीं नहीं... .. मैं रह गया हॅूं तुझसे बहुत पीछे.... ..!
इसलिये कि,
मैंने रुक कर, देखना चाहा इस प्रकृति के प्रवाह को,
पल पल बदलते रंगों के निखार को,
उलझती सुलझती वहुव्यापी चाह को।
तू... चलता रहा, चलता रहा कछुए की तरह,,,
और मैं ने अपनाया खरगोश की राह को।
एक बार नहीं , कई बार हुई हैं ये…
ContinueAdded by Dr T R Sukul on October 10, 2015 at 3:45pm — 2 Comments
गंगा‘, ‘यमुना‘ के तीर पर बैठे,
टूटती जुड़ती लहरों के व्यतिकरण में,
तुझे देखा है कई लोगों ने।
और मैं ने, ‘बेबस‘ और ‘धसान‘ में गोता लगाते
बार बार इस पार से उस पार जाते, आते, हृदयंगम किया है।
जबकि अन्यों को तू गिरिराज की
तमपूर्ण खोहों में छिपा मिला।
मेरे निताॅंत एकान्तिक क्षणों में क्या
तू मेरे चारों ओर प्रभामंडल की तरह नहीं छाया रहा?
आज तुझे उनमें भी लयबद्ध पाया
जिन्हें लोग कहते हैं कुत्सित , घ्रणित और अस्पृश्य ।
तेरी विराटता…
ContinueAdded by Dr T R Sukul on October 2, 2015 at 10:30am — 8 Comments
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