गंगा‘, ‘यमुना‘ के तीर पर बैठे,
टूटती जुड़ती लहरों के व्यतिकरण में,
तुझे देखा है कई लोगों ने।
और मैं ने, ‘बेबस‘ और ‘धसान‘ में गोता लगाते
बार बार इस पार से उस पार जाते, आते, हृदयंगम किया है।
जबकि अन्यों को तू गिरिराज की
तमपूर्ण खोहों में छिपा मिला।
मेरे निताॅंत एकान्तिक क्षणों में क्या
तू मेरे चारों ओर प्रभामंडल की तरह नहीं छाया रहा?
आज तुझे उनमें भी लयबद्ध पाया
जिन्हें लोग कहते हैं कुत्सित , घ्रणित और अस्पृश्य ।
तेरी विराटता…
ContinueAdded by Dr T R Sukul on October 2, 2015 at 10:30am — 8 Comments
Added by Dr T R Sukul on September 22, 2015 at 10:53am — 2 Comments
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मैं जाने क्यों कुछ सोच सोच रह जाता हॅूं,
नयनों के तिरछे तीर तीक्ष्ण सह जाता हूूॅं ।
कुछ पता नहीं बस मन से ही क्यों मन की कह जाता हॅूं,
सच है अन्तर की शब्दमाल के भावों में बह जाता हॅूं।
ए जनमन के भाव सिंधु, बढ़ते घटते ए चपल इंदु!
बतलाओ क्यों नहीं सरलता से अपनी तह पाता हॅूं?
झींगुर की झीं झीं से लगता एक मधुर रागनी बन जाऊं,
डलियों की कलियों सी महकी श्रंगार सुंगंधी बन जाऊं,
पर अबला के ए क्रंदन आत्मीयों की पल पल बिछुड़न!
तुम बतलाओ…
Added by Dr T R Sukul on September 11, 2015 at 10:12am — No Comments
Added by Dr T R Sukul on September 3, 2015 at 10:30am — 4 Comments
Added by Dr T R Sukul on August 17, 2015 at 10:26pm — 11 Comments
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