मेरा अंतर्विरोध ,
लिबलिबी उत्तेजित ट्रिगर दबी पिस्तौल है !
जब भी जमने लगता है प्रशस्तर ,
अहसासात की रूमानियत और इंसानियत पर,
तत्क्षण वँही ठोक देता है धांय-धांय,
ढेर कर देता है सारा व्रफुरपन मेरा अंतर्विरोध !
बदन के कुएं में जब भरने लगता है झूठ
सारी काली कमाई गंदे खून की चूस लेता है मेरा अंतर्विरोध !
भर देता है जाकर कान आईने के मेरा अंतर्विरोध ,
फिर घुसकर आईने में तडातड झापट रसीद करता है चेहरे पर ,
जैसे मल्लयुद्ध कोई,यूँ धोबी पछाड़ लगा पटक…
Added by chandan rai on June 4, 2012 at 10:26am — 18 Comments
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