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तो कोई  करे भी तो क्या करे

अनगिन हों सूरज दहकते हों तारे 

पर साँसों में भी घुल जाए अँधियारा 

तो कोई  करे भी तो क्या करे  

प्रहरी हों रक्षक पति ही पति हों 

पर फांसी हो जाये निज साड़ी किनारा 

तो कोई  करे भी तो क्या करे 

 

अंबर धरा संग चुप सुर हो सारे 

पर  निज न सुने जो  निज का पुकारा 

तो कोई  करे भी तो क्या करे   

 

भँवर से शिकायत न कश्ती से शिकवा 

पर नदिया को ही भूल जाये किनारा 

तो कोई  करे भी तो क्या करे

न  कहना कर्ण  से न दृग को दिखाना

पर जुबान से भी जब न जाये पुकारा 

तो कोई  करे भी तो क्या करे

 

दर हो द्वार दहलीजे बनी हों

पर गली में गली हो जाए गलियारा 

तो कोई  करे भी तो क्या करे

.

"मौलिक व अप्रकाशित"

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Comment

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Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 5, 2020 at 3:51am

आ. अमिता जी, अच्छी रचना हुई है । हार्दिक बधाई ।

Comment by amita tiwari on August 4, 2020 at 9:54pm

ब्रजेश जी 

आभार 

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on August 4, 2020 at 9:48pm

मनोभावों का अच्छा चित्रण किया है आदरणीया...

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