For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

उठा लाये फिर हम फ़सानों के पत्थर- ग़ज़ल

122 122 122 122

पड़े जब कभी बेज़बानों के पत्थर 

चटकने लगे फिर चटानों के पत्थर 

मुहब्बत तेरी दास्तानों के पत्थर 

उठा लाये फिर हम फ़सानों के पत्थर 

बड़ी आग फेंकी बड़ा ज़हर थूका 

उगलता रहा वो गुमानों के पत्थर 

उठाये फिरा हूँ मैं कांधों पे जिनको 

हैं सर पे सवार अब वे शानों के पत्थर

यहाँ दोस्ती, प्यार, नातों से बढ़कर

कई क़ीमती हैं ये खानों के पत्थर 

है जिंदा अभी तक मुहब्बत का जज़्बा

सितमगर उठा फिर दहानों के पत्थर 

मुझे याद है तेरी आँखों का जादू 

मुझे याद हैं तेरे कानों के पत्थर 

चिपकते रहें आदमी के लहू से 

चमकते रहें हुक्मरानों के पत्थर 

मौलिक व अप्रकाशित 

Views: 916

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by Rahul Dangi Panchal on July 14, 2021 at 11:06pm

बहुत शुक्रिया आदरणीय मुसाफ़िर जी,  जी बिल्कुल आदरणीय समर सर जी से ही ग़ज़ल की बारीकियां सीखी हैं,  obo ने ही तुकबन्दी से ग़ज़ल कहना सिखाया है,  समर सर का तो शिष्य है हम,  उनकी टिप्पणी के बाद चिंता मुक्त हो जाता हूँ ग़ज़ल की खामियों की ओर से,  सादर सादर प्रणाम आदरणीय समर सर 

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on July 14, 2021 at 11:18am

आ. भाई राहुल जी अच्छा प्रयास हुआ है । हार्ईदिक बधाई। समर जी की सलाह का अनुशरण करें । अंतिम शेर को बदल कर यूँ कर सकते हैं 

न जाने धरा का यहाँ हाल क्या हो 

गिरे जो कभी आसमानों के पत्थर 

Comment by Samar kabeer on July 12, 2021 at 3:35pm

//वैसे एहसानों काफिया मैंने rekhta की काफिया संग्रह से लिया था जहां पर इसका 2122 दर्शाया गया,  मैं भी 222 ही का ही उपयोग किया है पहले//

रेख़्ता पर अधिकतर जानकारियाँ ग़लत दी हुई हैं,उन पर भरोसा न किया करें ।

आख़री शैर हटाना ही उचित होगा ।

Comment by Rahul Dangi Panchal on July 10, 2021 at 9:47pm

आखिरी शेर में आसमानों के पत्थर,  को ग्रहों के लिए प्रयोग करने की कोशिश की है,  ग्रहों का लगातर एक घर से दूसरे घर मे जाने के संदर्भ में,  शायद अर्थ स्पष्ट नहीं पाया मुझसे 

Comment by Rahul Dangi Panchal on July 10, 2021 at 9:43pm

वैसे एहसानों काफिया मैंने rekhta की काफिया संग्रह से लिया था जहां पर इसका 2122 दर्शाया गया,  मैं भी 222 ही का ही उपयोग किया है पहले,  मार्ग दर्शन करे 

Comment by Rahul Dangi Panchal on July 10, 2021 at 9:38pm

आदरणीय कबीर जी 

Comment by Rahul Dangi Panchal on July 10, 2021 at 9:36pm

आदरणीय कबीर आपसे हम सब बहुत कुछ सीखते है,  इसलिए आपकी टिप्पणी का इन्तजार रहता है,  जो त्रुटियां हम नहीं देख पाते हम आपसे सीखते है,  

बहुत बहुत आभार,  आप हमे सिखाने में बहुत मेहनत करते हो 

Comment by Samar kabeer on July 10, 2021 at 2:50pm

जनाब राहुल डांगी जी आदाब, ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है, बधाई स्वीकार करें ।

'मुझे फिर लगे आज तानों के पत्थर'

इस मिसरे में क़ाफ़िया दुरुस्त नहीं है क्योंकि सहीह शब्द है 'तअ'न:' और इसका बहुवचन होगा "तअ'नों" और आपने क़वाफ़ी 'आनों' के लिये हैं,देखियेगा ।

'वो बदले मेरे एहसानों के पत्थर'

इस मिसरे में भी क़ाफ़िया दुरुस्त नहीं है, क्योंकि सहीह शब्द है "अहसानों" 222 और आपने इसे 2122 पर ले रखा है,देखियेगा ।

'किसी दोस्ती, प्यार, नातों से ज़्यादा'

इस मिसरे में आपकी जानकारी के लिये बता रहा हूँ कि सहीह शब्द 'ज़ियादा' है, और इसे 22 पर लेना उचित नहीं होता,इसकी जगह "बढ़ कर" शब्द ले सकते हैं ।

 

'है जिंदा अभी तक मुहब्बत का ज़ज्बा'

इस मिसरे में 'ज़ज्बा' को "जज़्बा" कर लें ।

'उछाले बहुत आसमानों के पत्थर'

इस मिसरे में वाक्य विन्यास ग़लत हो रहा है,सहीह वाक्य होगा "आसमानों पे' ग़ौर करें ।

बाक़ी शुभ शुभ ।

Comment by Rahul Dangi Panchal on July 9, 2021 at 9:12pm

मेरी गुज़ारिश है जनाब कबीर साहब इस ग़ज़ल पर मेरा मार्गदर्शन करे 

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity


सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-180
"आदरणीय सौरभ सर, क्या ही खूब दोहे हैं। विषय अनुरूप बहुत बढ़िया प्रस्तुति हुई है। इस प्रस्तुति हेतु…"
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-180
"हार्दिक आभार आदरणीय "
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-180
"आदरणीय चेतन प्रकाश जी प्रदत्त विषय अनुरूप बहुत बढ़िया प्रस्तुति हुई है। इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक…"
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-180
"आदरणीय लक्ष्मण धामी जी प्रदत्त विषय अनुरूप बहुत बढ़िया प्रस्तुति हुई है। इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक…"
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-180
"हार्दिक आभार आदरणीय लक्ष्मण धामी जी।"
Sunday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-180
"आ. भाई सौरभ जी, सादर अभिवादन। प्रदत्त विषय पर सुंदर रचना हुई है। हार्दिक बधाई।"
Sunday
Sushil Sarna posted a blog post

दोहा पंचक. . . शृंगार

दोहा पंचक. . . . शृंगारबात हुई कुछ इस तरह,  उनसे मेरी यार ।सिरहाने खामोशियाँ, टूटी सौ- सौ बार…See More
Sunday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-180
"आ. भाई मिथिलेश जी, सादर अभिवादन।प्रदत्त विषय पर सुन्दर प्रस्तुति हुई है। हार्दिक बधाई।"
Sunday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-180
"बीते तो फिर बीत कर, पल छिन हुए अतीत जो है अपने बीच का, वह जायेगा बीत जीवन की गति बावरी, अकसर दिखी…"
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-180
"वो भी क्या दिन थे,  ओ यारा, ओ भी क्या दिन थे। ख़बर भोर की घड़ियों से भी पहले मुर्गा…"
Sunday
Ravi Shukla commented on गिरिराज भंडारी's blog post ग़ज़ल - ( औपचारिकता न खा जाये सरलता ) गिरिराज भंडारी
"आदरणीय गिरिराज जी एक अच्छी गजल आपने पेश की है इसके लिए आपको बहुत-बहुत बधाई आदरणीय मिथिलेश जी ने…"
Sunday
Ravi Shukla commented on मिथिलेश वामनकर's blog post ग़ज़ल: मिथिलेश वामनकर
"आदरणीय मिथिलेश जी सबसे पहले तो इस उम्दा गजल के लिए आपको मैं शेर दर शेरों बधाई देता हूं आदरणीय सौरभ…"
Sunday

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service