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कविता :- ठहराव का सच

कविता :- ठहराव का सच

 

इच्छाओं की चिकनी सड़क पर फिसलती - संभलती ज़िंदगी की बाइक

और सिग्नल कभी ग्रीन कभी रेड

सोचता हूँ इन बादलों का कोई मौसम नहीं होता  

बरस जाना भी कोई हल नहीं होता  

कौन सा चश्मा लगाएं किस राह जाएँ

किसकी सलाह माने

किस नुस्खे को आजमायें

हर मोड़ हर चौराहे पर खड़ा यथार्थ का सिपाही

डंडे से डराता है

मौज मन से भाग जाता है

लगता है पैदल ही भला था

या तब जब कालेज के दिन थे और मैं साईकिल से चला था

पिता का बल और माँ की दुआएं साथ थीं

था जोश साथिओं का

या वो गाँव की पूअरा  लदी  बैलगाड़ी ही भली थी

हिचकोले खाती पगडंडियों से चली थी

इस कंकरीटी सोच में तो

चल रहे मात्र नोट और सिक्के

बेधड़क बे रोक टोक

और ठहरा है तो बस इंसान

ठहरी है तो बस इंसानियत !

 

           -अभिनव अरुण {240811}

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Comment by Abhinav Arun on August 26, 2011 at 2:50pm
abhaar shashi jee kavita aapko pasand aayee |
Comment by Shashi Mehra on August 25, 2011 at 9:08am
हर मोड़ हर चौराहे पर खड़ा यथार्थ का सिपाही
डंडे से डराता है
मौज मन से भाग जाता हैऔर ठहरा है तो बस इंसान
ठहरी है तो बस इंसानियत ! hassen soch hai, mubaarak ho, par|
बात इतनी समझ में आई है |
झूठ ही आजकल सच्चाई है ||
किसको अपना कहें, यहाँ यारो |
सोच तक तो, यहाँ पराई है ||

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