ग़ज़ल :- सोच का सन्दर्भ अब कितना इकहरा हो गया
सोच का सन्दर्भ अब कितना इकहरा हो गया ,
जड़कटी संस्कृति ने दी रिश्तों को परिभाषा नयी ,
मीडिया के शोर में हर शख्स बहरा हो गया |
मैं कि मूल्यों का लिए परचम हूँ लाइन में खड़ा ,
अब ऋचाओं का भी पढना क्या ककहरा हो गया |
दिन में हंसिये फावड़े पर रंग सियासत का चढ़ा ,
गाँव का तालाब रातोरात गहरा हो गया |
मेरे कांधों पर उम्मीदों के कई ताबूत हैं ,
और कब्रिस्तान पर लोगों का पहरा हो गया |
दौर में बिकने लगीं इल्मों हुनर की डिग्रियां ,
कह रहे हैं वो कि मुस्तकबिल सुनहरा हो गया |
- अभिनव अरुण {270404}
Comment
shukriya virendra jee aapki tippani mera hausla badhayegee "
bahut abhari hoon BAGI JI & SAURABH JI .apka sneh aur ashish milna jari rahe srijan ki syahi kuchh n kuchh rachti rahegi.thanks ! Thanks !
हर अशार पर अलग-अलग दाद लें. किसे क्या कहें अब.
बहुत-बहुत बधाई, अरुणअभिनवजी.
वाह वाह वाह, अरुण जी प्रत्येक शे'र उच्च मूल्यों को समाहित किये हुए है, जबरदस्त कहन का मुजाहिरा कराया है आपने, कांधो पर उम्मीदों का ताबूत ...वाला शे'र बहुत ही उम्द्दा लगा, कुल मिलाकर एक खुबसूरत ग़ज़ल कही है आपने | बधाई आपको |
सोच का सन्दर्भ अब कितना इकहरा हो गया ,
इसे अब भी बदलने की सोच रहा हूँ | कुछ वर्ष पहले लिखी ग़ज़ल में ये मिसरा पहले यूं था -
दर्द और संवेदना का बोझ दोहरा हो गया ,
आदमी तकनीक के हाथो का मोहरा हो गया |
परन्तु आगे के शेरो का काफिया दोषपूर्ण हो जाता | सो बदल दिया है | परिमार्जन की प्रक्रिया चल रही है निरंतर ...
आदरणीय अभिनव अरुण जी,
फिर से आप की एक शानदार ग़ज़ल आई हम लोगो के बीच|
आप को पढना बहुत अच्छा लगता| आपके भाव और समय का मेल बहुत सुन्दर है|
आपकी लेखनी को मेरा नमन
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