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राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- २४

ये जो शहरेवीराँ ये बस्तीएतन्हाई है  

आदमोहव्वाकी यही दौलतेआबाई है

 

चलिए रखके अपनी रफ़्तार पे काबू

ख्यालोंका शह्र है आबादीहीआबादी है  

 

कोई रोटी चाहे फूली, या न फूली हो

तवे से आखिर उतार ही दी जाती है

 

ख्वाबोंसे लाख बनाऊं घरौंदे जीने के

सफ़र लंबाहै और मुकाम इब्तेदाई है

 

तू फ़िक्रज़दा होती है तो यूँ लगता है

एक चिड़या है, बिल्ली से घबराती है

 

नसही तू तेरे नामसे वाबस्तगी सही

तुझसे ज्यादा तेरा नाम करिश्माई है  

 

हैरत है कैसे तेरे गम को छुपाए रखा

हर कलेजे में बस दोइंच ही गहराई है  

 

इश्क तो ख़ुदा ने पैदा किया है 'राज़'

तशक्कुल नहीं इसमें ये बेइन्तेहाई है

 

© राज़ नवादवी

भोपाल, संध्याकाल, ०६.५९, ०५/०८/२०१२

 

शहरेवीराँ- वीरान शह्र; बस्तीएतन्हाई- तनहा बस्ती; दौलतेआबाई- पुरखों की दौलत; इब्तेदाई- आरंभिक; फ़िक्रज़दा- चिंतित; वाबस्तगी- जुड़ना; तशक्कुल- साकार होना; बेइन्तेहाई- असीमित   

 

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Comment by राज़ नवादवी on August 11, 2012 at 9:59am

शुक्रिया जनाब अनंत जी. आपकी तहसीनेख़ास मखसूस तौर पे कबूल फरमाता हूँ! 

Comment by अरुन 'अनन्त' on August 8, 2012 at 11:53am

ख्वाबोंसे लाख बनाऊं घरौंदे जीने के

सफ़र लंबाहै और मुकाम इब्तेदाई है

इस शे'र पर कुछ ज्यादा ही दाद कुबूल कीजिये जनाब

Comment by राज़ नवादवी on August 7, 2012 at 12:33am

आदरणीया रेखाजी, आपकी दाद का बहुत बहुत शुक्रिया! 

Comment by Rekha Joshi on August 6, 2012 at 12:11pm

हैरत है कैसे तेरे गम को छुपाए रखा

हर कलेजे में बस दोइंच ही गहराई है  ,खुबसुरत रचना पर हार्दिक बधाई राज़ जी 

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