कोई दिन यूँ ही उदास सा बारिश का, इक नीम के दरख्त सा खड़ा, बिना परिंदों का, न ही कोई फूल महकते, न ही कोई चिड़िया चहकती, बस बारिश की बूंदों को टपकाते ख्यालों से चुप, ऊँचाइयों को छूते शज़र, पानी और नमी से झुके-झुके.
सुबह से बादलों के काले सायों का आँचल ओढ़ रखा है फ़ज़ा ने, घरों ने भी जैसे खामोशी की बरसाती ओढ़ रखी है, पहचाने घर भी पराए से लगते हैं. गली में कुत्ते भी भागते छुपते शायद ही नज़र आते, लोग भी कम ही दीखते हैं नुक्कड़ की दूकानों के इर्द गिर्द, गाड़ियों ने भी गोया आज सौमेखामोशी (मौन व्रत) रखा हो- आज इतवार न हो मानों सबने ज़िंदगी को जोर से यूँ पकड़ रखा हो अपने अपने घरों में जैसे उन्हें कल के रोज़ की आमदीद (आगमन) की कोई चाहत न हो.
आज छत पे टंगे पंखों की मूसिकी (संगीत) कोई सुन ले, घर में रखे फ्रिज की मशीन की घड़घड़ाहट के सुर नाप ले, अपने पड़ोसी के घर की कहासुनी, या इक्का दुक्के चलते फिरते मुसाफिरों की सरगोशियाँ- सब कुछ और किसी दीगर रोज़ से कहीं ज़्यादा तेज़ और साफ़ है उज़वे तनासुल में (इन्द्रियों में).
अब बारिश खुल के होने लगी है, सारे घर मकान और दरख्तोशज़र (पेड़-पौधे) बिला किसी इख्तेलाफ (विरोध) के भीगते जा रहे हैं, गाएं जैसे किसी आबिद (संत) की तरह गैरमुतगैयिर (निर्विकार) होके सब सह लेती हैं.
दिन चाहे कितना सुस्तरफ़्तार हो, शाम का वरूद (आगमन) तो बावक्त (समय पे) ही होगा. कोई रोटी तवे पे चाहे फूली या न फूली हो, तवे से उतार ही दी जाती है!
© राज़ नवादवी
भोपाल, अपराह्नन ०३.२३, ०५/०८/२०१२
Comment
बहुत खूब फरमाया है आपने रेखा जी! आभार!
खामोशी किस हद तक सहन किये जाए गे
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