ये जो शहरेवीराँ ये बस्तीएतन्हाई है
आदमोहव्वाकी यही दौलतेआबाई है
चलिए रखके अपनी रफ़्तार पे काबू
ख्यालोंका शह्र है आबादीहीआबादी है
कोई रोटी चाहे फूली, या न फूली हो
तवे से आखिर उतार ही दी जाती है
ख्वाबोंसे लाख बनाऊं घरौंदे जीने के
सफ़र लंबाहै और मुकाम इब्तेदाई है
तू फ़िक्रज़दा होती है तो यूँ लगता है
एक चिड़या है, बिल्ली से घबराती है
नसही तू तेरे नामसे वाबस्तगी सही
तुझसे ज्यादा तेरा नाम करिश्माई है
हैरत है कैसे तेरे गम को छुपाए रखा
हर कलेजे में बस दोइंच ही गहराई है
इश्क तो ख़ुदा ने पैदा किया है 'राज़'
तशक्कुल नहीं इसमें ये बेइन्तेहाई है
© राज़ नवादवी
भोपाल, संध्याकाल, ०६.५९, ०५/०८/२०१२
शहरेवीराँ- वीरान शह्र; बस्तीएतन्हाई- तनहा बस्ती; दौलतेआबाई- पुरखों की दौलत; इब्तेदाई- आरंभिक; फ़िक्रज़दा- चिंतित; वाबस्तगी- जुड़ना; तशक्कुल- साकार होना; बेइन्तेहाई- असीमित
Comment
शुक्रिया जनाब अनंत जी. आपकी तहसीनेख़ास मखसूस तौर पे कबूल फरमाता हूँ!
ख्वाबोंसे लाख बनाऊं घरौंदे जीने के
सफ़र लंबाहै और मुकाम इब्तेदाई है
इस शे'र पर कुछ ज्यादा ही दाद कुबूल कीजिये जनाब
आदरणीया रेखाजी, आपकी दाद का बहुत बहुत शुक्रिया!
हैरत है कैसे तेरे गम को छुपाए रखा
हर कलेजे में बस दोइंच ही गहराई है ,खुबसुरत रचना पर हार्दिक बधाई राज़ जी
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