रात की सन्नाटगी बोलने लगी है, कानों की वीरानियाँ सुनने. कालोनी की सडकों पे तन्हाईयों के डेरे लग चुके हैं और घरों में लोग अपने अपने बिस्तर पे कटे दरख्तों की मानिंद बिछ से गए हैं. किसी किसी घर से टीवी के चलने की आवाज़ भी आ रही है, पता नहीं देखने वाला जाग भी रहा है या सो रहा है. लोग इक समूचे दिन को पीछे छोड़ आए हैं और रोज़मर्रा की तमाम कदोकाविश (भाग दौड़) जैसे उनके कपड़ों के साथ आलमीरों में टंग गई है इक रात के आराम के लिए. जूते मेज के किनारे चुपचाप पड़े हैं, उनके तस्में (फीते) लहराते अंदाज़ में फर्श को छूते और गोलाइयों में आधे लिपटे आधे खुले जुराब जूतों में आधे अन्दर और जूतों से आधे बाहर झांकते हुए.
आदमी की ज़िंदगी इन जूतों और जुराबों से कुछ जुदा नहीं- दिन भर जिस शख्सियत को ओढ़कर घूमता फिरता है, रात को नींद में उसे जुराबों की ही तरह उतार देता है. उसकी अना (स्वयं के होने का भाव) जुराबों की तरह बिस्तर के सिरहाने उसके फिर से जागने और ओढ़ लेने का इंतज़ार करती रहती है. जूतों और जुराबों के फट जाने तक ये सिलसिला यूँ ही चलता रहता है!
© राज़ नवादवी
भोपाल, मंगलवार अर्धरात्रि १२.१०, ०७/०८/२०१२
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