प्यार की इक खोई नज़र आज फिर लौट आयी, झुकी आँखों का दबा दबा भंवर आज फिर याद हो आया. ज़मीन पे बिछे तोशक पे, दीवार से लगके बैठे, कँवल सी फ़ैली हथेलियों में अपनी ठोढ़ी संभाल के, अपनी लरज़ती ज़ुल्फों के काकुल के झरोखे से ज़मीन को ताकते हुए तुम किसे सोचती थीं? मैं जानता हूँ, वो मैं ही था और और थीं तो हमारे बेसाख्ता पैदा हुए प्यार के गैरमुऐयन मुस्तकबिल (अनिश्चित भविष्य) की तश्वीशात (चिंताएं)! फिक्रमंद, अपनी सतर उँगलियों से मिट्टी पे जो अबूझ से नक्श तुमने उकेरे थे, ...इक शाम मेरे साथ, आज वो ख़्वाबों की इक नामुकम्मिल इबारत बनकर हमारी ज़िंदगी और प्यार की गुमनामियों की दास्ताँ कह रहे हैं.
बैंगलोर के गर्ल्स हॉस्टल की सुबहोशाम और वहाँ गुज़ारे कुछ पल- हमारे साथ रहने की कहानी इससे ज़्यादा लम्बी न रही, मगर वो पल जैसे हज़ार ज़िंदगी पे भारी हैं और आज की शाम भी तनहा ही बंगलोर के कूचों में टहलते हुए अपने इमरोज़ को उनसे हारते हुए देखा!
© राज़ नवादवी
बैंगलोर, रात्रिकाल ०९.०४, बुधवार, १५/०८/२०१२
Comment
आदरणीया रेखा जी एवं आदरणीया राजेश जी , खेद है कि काम की व्यस्तताओं की वजह से वक़्त पे आपकी बधाइयों का जवाब न दे सका, मगर पढ़कर जो हौसलाअफजाई हुई है उसका हाल बयाँ नहीं कर सकता. मुझे बेहद खुशी है कि आप दोनों को मेरी इन्फिरादी ज़िंदगी का ये पहलू पसंद आया. आपकी दुआएं हमेशा दिल को रौशन करेंगी!
आपका ही,
- राज़ नवादवी
मगर वो पल जैसे हज़ार ज़िंदगी पे भारी हैं और आज की शाम भी तनहा ही बंगलोर के कूचों में टहलते हुए अपने इमरोज़ को उनसे हारते हुए देखा!,अति सुंदर अभिव्यक्ति आदरणीय राज़ जी
अपनी सतर उँगलियों से मिट्टी पे जो अबूझ से नक्श तुमने उकेरे थे, ...इक शाम मेरे साथ, आज वो ख़्वाबों की इक नामुकम्मिल इबारत बनकर हमारी ज़िंदगी और प्यार की गुमनामियों की दास्ताँ कह रहे हैं.---बहुत सुन्दर भावाभिव्यक्ति आँखों के सम्मुख चित्र सा बनाती हुई आपकी ये पंक्तियाँ मेरी एक रचना मिलन का इन्द्रधनुष कि याद दिला गई आपके लिखने का अंदाज बहुत पसंद आता है ----हार्दिक बधाई इस प्यारी रचना के लिए
आदरणीय सौरभ भाई साहेब, आपका तबसरा खुद में इक खूबसूरत नस्र है. आपने सही फरमाया- मुग्धा, हिन्दी साहित्य में अनेक नायिकाओं में एक, मगर शायद प्यार की रूमानियत को खामोशियों में बयाँ करता इक लासानी तसव्वुर. इंसानी और रूहानी इश्क में फर्क कहाँ रह जाता है.
आपकी तहसीन ओ दाद का शुक्रिया तो अदा करता हूँ, मगर क़र्ज़ तो बना रहेगा- बहुत बहुत शुक्रिया जनाब!
भंगिमाओं में हो रही लरजपन पर आपके उत्कृष्ट लेखन को मेरी हार्दिक बधाई, राज़ साहब. मुग्धा के मनोभाव की गहरी समझ साझा करती गद्य की अंतर्धारा में बहती इस कोमल कविता के लिये अनेकानेक बधाइयाँ. आपकी स्वकेन्द्रित अभिव्यक्तियाँ पाठक के मन-भाव को गहरे संतुष्ट करती हैं.
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