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राज़ नवादवी: मेरी डायरी के पन्ने- ३५

मुद्दत हो गई है कुछ भी लिखे, इक अधूरापन समा गया हो जैसे मेरे अन्दर, और गोया ये अधूरापन अपने अधूरेपन के अधूरेपन में ही मुतमईन हो. भोपाल से सफर पे आमादा हुए तीन हफ्ते गुज़र गए हैं और इन तीन हफ़्तों में कई मंज़िलात से गुज़रा- इंदौर-बैंगलोर-चेन्नई-बैंगलोर-मैसूर-बैंगलोर-चेन्नई- और फिर वापस बैंगलोर. आगे आने वाले दिनों में और भी कई जगहों का कयाम करना है- अहमदाबाद, पुणे, नॉएडा, जयपुर.... कभी हवा में थम से गए हवाई जहाज़, कभी लोहे की पटरियों पे दौड़ती रेल, कभी फर्राटे से भागती कार, तो कभी वोल्वो बस की यकसाँ रफ़्तार.

 

ज़िंदगी सफ़र-दर-सफ़र छोटी होती जा रही है और सफ़र मुकाम-दर-मुकाम लंबा.

न जाने कब भोपाल पहुंचूंगा और कब अपने घर पे कुछ रोज़ सुकून से गुज़ारने की किस्मत. बड़े होते जा रहे बच्चों के बाकी रह गए बचपन का कुछ और साथ, माँ के किरदार में बदलती जा रही बीवी की खिदमतदारियां, हमेशा मुहब्बत भरे लम्स ओ लगावट के भूखे मेरे नन्हें कुत्ते बौब्बी, निन्नी, और ओबामा, बावर्चीखाने में सबों के लिए नई नई रेसिपी बनाने के मज़े, और काम की उलझनों से बेखबर होकर ज़िंदगी को लम्हा लम्हा खर्च करने की आज़ादी- जो सारे जहां में नहीं है, वो मेरे घर में ही तो है!   

 

© राज़ नवादवी

बैंगलोर, सायंकाल ०५.१९, शनिवार, ०१/०९/२०१२

०१/०९/२०१२ 

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Comment

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Comment by राज़ नवादवी on September 6, 2012 at 8:54am

आदरणीया राजेश जी! मेरे लिखने के अंदाज़ को इतनी साफगोई से पसंद किया है आपने, इसका आभार नहीं चुका सकता, फिर भी आपका बहुत बहुत धन्यवाद! 

Comment by राज़ नवादवी on September 6, 2012 at 8:53am

आदरणीया रेखाजी, आपको मेरी रचना पसंद आई, ये जानकार बहुत अच्छा लगा और बेहद खुशी भी. आपका हार्दिक धन्यवाद!

Comment by Rekha Joshi on September 2, 2012 at 11:03pm
आदरणीय राज़ जी 
न जाने कब भोपाल पहुंचूंगा और कब अपने घर पे कुछ रोज़ सुकून से गुज़ारने की किस्मत. बड़े होते जा रहे बच्चों के बाकी रह गए बचपन का कुछ और साथ, माँ के किरदार में बदलती जा रही बीवी की खिदमतदारियां, हमेशा मुहब्बत भरे लम्स ओ लगावट के भूखे मेरे नन्हें कुत्ते बौब्बी, निन्नी, और ओबामा, बावर्चीखाने में सबों के लिए नई नई रेसिपी बनाने के मज़े, और काम की उलझनों से बेखबर होकर ज़िंदगी को लम्हा लम्हा खर्च करने की आज़ादी- जो सारे जहां में नहीं है, वो मेरे घर में ही तो है!   
अपना घर अपना ही होता है दुनिया के किसी भी कोने में चले जाओ लेकिन जो सकून अपने घर में मिलता है  वह कहीं नही मिलता ,बेहद खूबसूरती से अपने घर को याद किया है आपने  

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on September 2, 2012 at 7:26pm

आपका लिखने का अंदाज आपकी पोस्ट पर खींच लता है बस इससे ज्यादा और क्या कहूँ 

Comment by राज़ नवादवी on September 2, 2012 at 7:06pm

बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय सौरभ भाई! 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on September 1, 2012 at 11:06pm

बड़े होते जा रहे बच्चों के बाकी रह गए बचपन का कुछ और साथ, माँ के किरदार में बदलती जा रही बीवी की खिदमतदारियां,

दिल को छू गयी यह पंक्ति .. वाह !

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