सर्द सी सुबह और बेरंग सा आसमान. तेज़ बहती हवा और नशे में झूमते से दरख्तोशज़र. चौथी मंज़िल पे मेरा एक अकेला कमरा. बड़ा सा और खाली खाली. सलवटों से भरा बिस्तर, सिकुड़े सहमे से तकिए, किसी नाज़नीन के आँचल सा लहरा के लरज़ता हुआ लेटा कम्बल. सोफे पे रखा शिफर (शून्य) में ताकता खाली ट्रवेल बैग. पति-पत्नी-से अकुला के अगल-बगल मेज़ पे पड़े जिभ्भी (टंग क्लीनर) और टुथ ब्रश- किसी साहूकार के पेट सा फूला टूथपेस्ट... तो किसी गरीब की आंत सा सिकुड़ा मेरे शेविंग क्रीम का ट्यूब. दरवाज़े और दरीचों को बामुश्किल ढँक पा रहे परदे, सर्र सर्र कर अन्दर आती हवाएं गोया जवानी की तेज़ तेज़ सासें हों जिनसे जिस्म के उभार को छुपाना मुश्किल हो रहा हो.
लाल टाइल्स से खूबसूरती से बनी कमरे की तिरछी छत, नारंगी और बर्फ के रंग सी, कहीं खुरदुरी तो कहीं नंगी ईंटें को दिखाती एतेमाद से (विश्वास से) भरीं घर की खामोश दीवारें- छत के बीचोंबीच लटका, आहिस्ता आहिस्ता गर्दिश करता अँगरेज़ के ज़माने का सीलिंग फैन....
बैंगलोर में मेरा गेस्ट हाउस- एक ओपेरा हाउस की तरह ही तो है जहां मैं ही आर्टिस्ट हूँ, मैं ही औडिएंस, मेरी तनहा ज़िंदगी की हर शाम ओ सुबह इक शो, और मेरे घड़ी घड़ी बदलते इमोशंस मेरे कॉस्ट्यूम्स !
© राज़ नवादवी
बैंगलोर, प्रातःकाल ०८.४८, गुरुवार, ०६/०९/२०१२
Comment
एक आर्टिस्ट के कमरे की यही तो खूबसूरती है जिसे आपने बखूबी से बयाँ किया है ,सुंदर इज़हार राज़ जी
आदरणीय गणेश जी, आपके कठिन शब्द विन्यास का अर्थ नहीं समझ पाया, समझा दें तो आभार!
मैं इस पेपर में अनुत्रिण हो गया |
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