न होता परवाना तो जलके शरार क्या होता
न होती शम्मा तो फिर जाँनिसार क्या होता
तेरे हाथों मेरा रेज़एइश्क नागवार क्या होता
अगर उड़ता नहीं हवाओं में गुबार क्या होता
वफाशनास कब हुआ है हुस्न आप ही बोलो
अगर जो होता वो वैसा तो प्यार क्या होता
मुझे यकीन है वादों पे कि ये मेरी चाहत है
जोहोता न खुदपे तो तेरा ऐतेबार क्या होता
लिखी जाती कहानियां हमारी भी हाशिए पर
मैं तेरे चाहने वालोंमें होके शुमार क्या होता
मेरे अशआर नवा-ए- संजेफुगाँ हैं गलत नहीं
तुम्हारा आशिक कोई नग्मानिगार क्या होता
तेरी सताइश का मुझ से है क्या लेना- देना
हम हैं पहले से बदनाम, इश्तेहार क्या होता
मैं था इश्कका मारा और वो तेरी दोस्ती का
मैं उससे भी और ज्यादा सोगवार क्या होता
हुए बर्बाद इश्कमें अब और क्या गारत होती
हमारे माथेपे अबदूसरा जुनूं सवार क्या होता
लगीथी आस कोई दूसराही मिल जाए हमसा
लुटेहुए लोगोंका अबऔर इख्तेयार क्या होता
वो न आये तो न आए न दिखे रौज़न से भी
दरीचा घरके दरवाज़े का गमगुसार क्या होता
थे तुम जब अपने तो हिज्र में भी अपनेही थे
हुए जब अग्यारके तुम तो इंतज़ार क्या होता
तू था तो तेरे होनेका नशाथा और न होने पे
हिज्र की मखमूरियाँ थी मैं बेकरार क्या होता
तूने माँगी इजाज़तेतर्केवफ़ा सो हमने दे डाली
तेरी मरज़ी के बगैर ले कर बहार क्या होता
इश्क के खेलमें दानाई का मैं करता भी क्या
बाज़ी-ए- जुनूँ थी खिरद होशियार क्या होता
‘राज़’की खुनकहरारती का राज़ तुम जाने हो
तेरे आतिश ज़दा लोगों को बुखार क्या होता
© राज़ नवादवी
भोपाल, शनिवार, रात्रिकाल ०९.३५, ११/०८/२०१२
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