ज़िंदगी क्या है? बचपन गुज़र गया, जवानी बीत गई, ज़ईफ़ी उफ़ुक़ (क्षितिज) पे आ चुकी है. बेफिक्री, नाइल्मी, मासूमी, और मौजोमस्ती के दौर अब रहे नहीं; मआशी (आर्थिक), इज्देवाजी (दाम्पत्य), इन्फिरादी (व्यक्तिगत), कुनबाई (पारिवारिक), और समाजी फिक्रों के तानेबानों में पल पल की राह ढूँढते रहते हैं. हमें किसकी तलाश रहती है, दिल क्यूँ कभी खुश तो कभी रंजोगम (दुःख और दर्द) से माज़ूर (व्यथित) होता है, इक ही सूरत को पहने माहौल कभी क्यूँ दिलकश तो कभी दिल पे गराँ (भारी) लगते हैं?
बच्चे छोटे थे तो हमारी तशवीशात (चिंताएं) भी छोटी थीं. वो देहरादून में बीते माहोसाल (महीने और साल) सबसे खुशतरीन थे. शह्र के गिरीबाने कोह (पहाड़ों की तराई) में अपना एक आशियाना, कानों में बजती खामोशी की सदा (आवाज़), ठंढक के लिहाफ में लिपटी सुबहो-शाम, हर रोज़ सूरज के तुलूअ (उदय) और गुरूब (अस्त) होने का दीद (दर्शन), सीधे-सादे लोग, साफ़ सुथरी सड़कें, और सब्जियत के पैरहन (कपड़ों) में लिपटी कुदरत (प्रकृति) की बेशुमार अलामत (चिह्न), शाम को मसूरी का टिमटिमाता, पहाड़ों में टंगा दीखता शहर, राजपुर के कस्बाई बाज़ार का सादासिफत (आम गुणों वाला) नज़ारा, सुफेद स्कॉर्पियो कार में ऊँची नीची सड़कों का सफारी- कहाँ गए वो दिन, किधर सर्फ़ (शेष) हो गई हमारी वो खुशहाल ज़िंदगी?
देहरादून से आके कोल्कता बसना नागवार गुज़रा था बच्चों को. इक तज़ाद (विरोधभास) था दो जिन्दगानियों में- खल्वत (एकाकीपन) से चलकर अज्देहाम (सर्व साधारण की भीड़) का सफ़र. हमने लिहाज़ा रहने को साल्ट लेक का इक मकान ढूँढा जो काफी मंहगा था मगर शायद यहाँ बच्चों को कुछ सुकून मिलता.
बच्चे भी धीरे धीरे कोल्कता के रंग में ढल गए और इस हद तक कि जब कोल्कता से भोपाल चलने को हुए, तो न सिर्फ बच्चों की आँखें नाम थीं बल्कि वो सचमुच में रो भी रहे थे.
© राज़ नवादवी
भोपाल, अपराह्नन ०२.०६, ०४/०८/२०१२
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