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राज़ नवादवी: मेरी डायरी के पन्ने- ३०

ज़िंदगी के रुपहले परदे पे हम किसी साए की तरह जी रहे हैं, कायनात से आ रही शुआ बिखर कर रंगीन हो गयी है. जब भी कुछ टूटा है, कुछ नया बना है. जब भी कहीं कुछ नया हुआ, कहीं कुछ पुराना छूट गया है. हालात में तरतीब (व्यवस्था) की तलाश की तो बेतरतीबियां ही बेतरतीबियाँ नज़र आईं और जब किसी भी हाल में गाफ़िल (बेसुध) होके जिया तो बेतरतीबियों के सिलसिले में भी इक तसलसुल (क्रम) सा बन गया. अजीब इत्तेफाक़ है कि इत्तेफाक़ भी तय लगते हैं और ये भी कि तयशुदा ज़िंदगी में इत्तेफाक़ ही इत्तेफाक़ हैं. ज़िंदगी में ये तज़ाद (विरोधाभास) न होता तो ज़िंदगी की नुमाईयत (द्रष्टव्यता) कितनी बेमज़ा होती और ये भी कि ये तज़ाद हैं तो दुःख और दर्द के मुतवातिर (लगातार) वरक (पन्ने) खुलते और बंद होते रहते हैं और हम इंसानी कमजोरियों और मजबूतियों से दरपेश.

जो इमरोज़ (आज का दिन) इक अदद वहदत में (इक अकेली इकाई में) बेरंग दिखता है वही पीछे मुड़कर देखने पे इज्तेमाअ में (सामूहिक रूप में) कोई कौसेकुजह (इन्द्रधनुष) नज़र आता है. ज़िंदगी का ये करतब (खेल) कितना नादिर (अद्भुत) है!

© राज़ नवादवी

भोपाल, मध्याहन्न १२.१३, ०१/०८/२०१२ 

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Comment by राज़ नवादवी on August 2, 2012 at 8:41am

आदरणीया रेखाजी, आपका धन्यवाद और आभार! 

Comment by Rekha Joshi on August 1, 2012 at 8:42pm

राज़ जी 

 जब भी कहीं कुछ नया होता है , वहीँ कुछ पुराना छूट जाता है ,बेहतरीन रचना पर बधाई स्वीकार करें ,आभार 

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