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गीत मे तू मीत मधुरिम नेह के आखर मिला

सौरभ जी से चर्चा के पश्चात जो परिवर्तन किये हैं उन्हें प्रस्तुत कर रही हूँ 

परिचर्चा के बिंदु सुरक्षित रह सके  इस हेतु  पूर्व की पंक्तियों को भी डिलीट नहीं किया है जिससे नयी पंक्तियाँ नीले text में हैं 

 

गीत मे तू मीत मधुरिम नेह के आखर मिला 
प्रीत के मुकुलित सुमन हो भाव मे भास्वर* मिला -----*सूर्य

हो सकल यह विश्व ही जिसके लिए परिवार सम 
नीर मे उसके नयन के स्नेह का सागर मिला 

पी लिया जिसने हलाहल बन के मीरा की तरह 
ऐसी भक्ति से स्वयं फिर आ के वो गिरधर मिला 

पी लिया जिसने हलाहल बन के मीरा बावरी 
प्रेम की  ऐसी ऊँचाई पर स्वयं ईश्वर मिला 

है सबल या है निबल मत सोच रेखा भाग्य की 
लक्ष्य बस उसको मिला जो कर्म मे तत्पर मिला 

है सबल या है निबल मत सोच रेखा भाग्य की 
लक्ष्य तो वो भेदता ,जो कर्म मे तत्पर मिला 

क्या गज़ल क्या गीत क्यों इस बात पर चर्चा करें 
जो हरें पीड़ा ह्रदय की तू वही अक्षर मिला 

ढूंढ के थक जाएगा काबा ओ काशी एक दिन 
वो है भीतर स्वयं के बाहर कहाँ ईश्वर मिला 

टूटते जिन स्वप्न को दरकार है आधार की
आ तू उनकी नींव मे विश्वास के पत्थर मिला 

कैद मे थे वक्त की जो कामनाओं के विहग 
उड़ चले जैसे ही बंधक आस को अम्बर मिला

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Comment by पीयूष द्विवेदी भारत on September 25, 2012 at 7:44am

लाजवाब सीमा जी.... बहुत बहुत बधाई!

Comment by VISHAAL CHARCHCHIT on September 13, 2012 at 2:51pm

वाह दीदी वाह, आपकी ये रचना हम जैसे नवोदित कवियों के लिए प्रेरणास्रोत है !!!!!

Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on September 13, 2012 at 10:41am

वाह वाह वाह ..........................
आदरणीय सीमा जी सादर आभार
आपकी इस ग़ज़ल के माध्यम से हिंदी आसमान में अपना परचम लहरा रही है
बहुत सुन्दर कहन
इस लाजवाब ग़ज़ल के लिए ढेरों दाद क़ुबूल फरमाइए

Comment by seema agrawal on September 12, 2012 at 8:27pm

प्रिय विन्धेश्वरी भाई  आपकी और सौरभ जी की क्रिया -प्रतिक्रिया ने आनंदित कर दिया गज़ल की  मन को खुश कर देने वाली सराहना के लिए आपकी आभारी हूँ 
सौरभ जी आपका पुनः आभार 

Comment by seema agrawal on September 12, 2012 at 8:22pm

बहुत बहुत शुक्रिया रेखा जी ....आपने रचना को स्नेह दिया बहुत खुशी हुयी 

Comment by seema agrawal on September 12, 2012 at 8:21pm

आदरणीय लक्षमन जी आपकी उत्साही प्रतिक्रया हमेशा ही हौसला बढाती है ...सराहना हेतु जो पंक्तियाँ आपने प्रस्तुत की हैं उसके लिए दिल से आभारी हूँ आपकी 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on September 12, 2012 at 6:24pm

हा हा हा.. लहरें ही गिन रहा था, भाई. जब गिनती समाप्त हो गयी तो डूबने-उतराने लगा.. .

हा हा हा हा...

Comment by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on September 12, 2012 at 6:18pm

आदरणीय गुरुदेव श्री सौरभ जी प्रणाम! समर्थन के लिए हार्दिक आभार।आप भी डूब रहे हैं?मैं तो समझ रहा था कि कविता-सागर की लहरों को गिन रहें हैं। (अन्यथा नहीं लीजिएगा क्योंकि आप किसी भी रचना पर कड़ी नजर रखते हैं।) चलिए हम गुरु-शिष्य साथ-साथ डूबते उतराते हैं।
सादर।


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on September 12, 2012 at 6:09pm

आपने मेरे कहे को मान दिया है सीमाजी.  अब इस रचना/ हिन्दी ग़ज़ल को पुनर्संपादित कर लें. अत्यंत उच्च स्तर की अभिव्यक्ति हुई है. 

सादर


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on September 12, 2012 at 6:08pm

आपने एकदम उचित कहा है, विंध्येश्वरी भाईजी. इस रचना/ गज़ल/ द्विपदियों/ भाव-पंक्तियों में मैं स्वयं ही डूब-उतरा रहा हूँ. अभिभूत हूँ.

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