खिलखिलाती सिसकियों का हर तरफ ही शोर है
भीड़ में तन्हाइयों की भीड़ चारों ओर है
ये कहाँ हैं हम ?
क्या यही थे हम ?
छू रहा मानव सफलता के चमकते नव शिखर
प्रकृत नियमों को विकृत करता ये कैसा है सफर
है सभी कुछ पर अधूरी,
हर निशा हर भोर है
ये कहाँ हैं हम ?
क्या यही थे हम ?
कितनी परतों में दबा है आज का ये आदमी
अब कहाँ किरदार सच्चे अनृत की है तह जमी
स्वार्थ आरी नेह बंधन,
कर रहीं कमज़ोर हैं
ये कहाँ हैं हम ?
क्या यही थे हम ?
है धुआँ आँखों में रिश्तों की सुलगती आह का
टूटते अनुबंधों का और टिमटिमाती चाह का
उच्चाकांक्षा की चमक में,
तिमिर ही घनघोर है
ये कहाँ हैं हम ?
क्या यही थे हम ?
Comment
रचना की सराहना के लिए शुक्रिया सतीश जी
राज़ जी किसी भी कविता को जिए बिना लिखना बहुत मुश्किल है लेखन में वो पल बहुत मुश्किल पल होते हैं जब बात कहने के लिए हम सही लफ्ज़ नहीं ढूँढ पाते .....और जब कविता बनने के बाद वो बहुतों को अपनी कहानी सी लगती है,या बहुतों को अपने मन की बात लगती है तो सारा श्रम सार्थक हो जाता है ..........
//हम जब खुद से सवाल करने लगते हैं, बातें करने लगते हैं तो कविता सुन्दर बन जाती है. कोई खुद को हममें देखने लगता है//..........बहुत सुन्दर बात कही आपने ...शुक्रिया
सुन्दर एवं सराहनीय रचना बधाई आपको ...इस चुने हुए शब्दों के लिए ....
खिलखिलाती सिसकियों का हर तरफ ही शोर है
भीड़ में तन्हाइयों की भीड़ चारों ओर है
ये कहाँ हैं हम ?
क्या यही थे हम ?
है धुआँ आँखों में रिश्तों की सुलगती आह का
टूटते अनुबंधों का और टिमटिमाती चाह का
हम जब खुद से सवाल करने लगते हैं, बातें करने लगते हैं तो कविता सुन्दर बन जाती है. कोई खुद को हममें देखने लगता है......सुन्दर पंकतिया हैं. बधाई स्वीकार करें.
धन्यवाद सौरभ जी आपकी बात से सहमत हूँ ...........कुछ ऐसा भी लिखा जाना चाहिए कुछ वैसा भी लिखा जाना चाहिए
पुनः आभार
कभी-कभी बातें सीधी-सीधी सुनने को मिले तो बहुत अच्छा लगता है. गीत का असर देर तक बना रहता है, सीमाजी. हार्दिक बधाई.
आदरणीय Laxman Prasad Ladiwala जी दिल से शुक्रिया आपको कि कथ्य से आप भी सहमत हैं
गीत की सराहना के लिए आभारी हूँ गणेश जी धन्यवाद
धन्यवाद राजेश जी आपकी उपस्थिति भी दिल को छूती है
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