बोल मेरे अर्पण
तुझको क्या लुभाए
डैनें बांध रहना
या उड़ना जग उठाए
मूड़ता जो माथा
है वह अनादि गाथा
आवर्त की ये रूनझुन
पथ में सभी ने पाए
रोहित न हो तू लोहित
आकर है तू तो शोभित
स्वर दे जरा गमक दे
अनहद तुझे बुलाए
इक दृष्टि अपलक दे
सोंधी सी इक धमक दे
यह चक्र जो अनघ है
सबको ही आजमाए
नीरव निशा जो रहती
श्यामल सी चोट सहती
भासित उसी से सूरज
चलता है पग छिपाए
तो चल ना भूल पथ अब
तपी हो ना तू विरत अब
होता वही है दुष्कर
जिसको तू सिर झुकाए
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
हार्दिक आभार आदरणीय लड़ीवाला जी एवं राम शिरोमणि जी । लड़ीवाला जी मैं राजेश हूं ना कि राकेश, इससे पहले भी आप मुझे यही नाम दे चुके हैं, अगर आपको यही पसंद है तो यही सही पर माताजी का दिया मेरा नाम शायद मुझे अधिक खुशी देगा, सादर
रोहित न हो तू लोहित
आकर है तू तो शोभित
स्वर दे जरा गमक दे
अनहद तुझे बुलाए।
बोल मेरे अर्पण
तुझको क्या लुभाए-------बहुत सुन्दर भाव, हार्दिक बधाई राकेश कुमार झा जी
स्वर ही तुझे लुभाए
अनहद तुझे बुलाए।------अर्पण ये बोले - लक्ष्मण ये समझे रकेश जी
नीरव निशा जो रहती
श्यामल सी चोट सहती
भासित उसी से सूरज
चलता है पग छिपाए!!
उत्तम अति उत्तम भाई जी .........हार्दिक बधाई
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