( गुरुजनों की समीक्षार्थ प्रस्तुत )
तृष्णा मृग की ज्यों उसे, सहरा में भटकाय |
तपती रेत में देता , जल का बिम्ब दिखाय ||
जल का बिम्ब दिखाय, बुझे पर प्यास न उसकी|
त्यों माया से होय , बुद्धि कुंठित मानव की ||
प्रज्ञा का पट खोल, नाम ले राधे - कृष्णा |
सुमिरन करते साथ, मिटेगी हरेक तृष्णा ||
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मौलिक व अप्रकाशित
Comment
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सादर
आदरणीया शालिनी जी ..कुंडलियों मुझे पढने में अच्छी लगी तकनीकी पक्ष के बिषय में ज्यादा जानकारी नहीं है ..आदरणीय गोपाल सर की प्रतिक्रिया से ही इस बिषय पर कुछ जानकारी मैली ..ढेर सारी शुभकामनाओं के साथ
आदरनीया शालिनि जी , कुन्दलिया सुन्दर रची है , बधाइयाँ । आ. गोपाल भाई की सलाहों पर गौर कीजियेगा ॥
सुन्दर भावों के साथ अच्छा प्रयास है . प्रबुद्ध जनों के सुझावों पर अमल करते रहें . जल्दी ही इस कला में माहिर हो जाएँगी . हार्दिक बधाई .
प्रोत्साहन के लिए धन्यवाद annapurna bajpai जी
सुंदर भाव , अच्छा प्रयास । जारी रक्खें ।
हार्दिक आभार asha pandey ojha जी
utkrisht
आदरेया rajesh kumari आपकी इस सुझावपरक टिप्पणी के लिए हार्दिक धन्यवाद !
आदरणीय डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी , इतने विस्तार से दोहा छंद की बारीकियां समझाने के लिए धन्यवाद .. मैं वाक़ई इन बारीकियों से अनभिज्ञ थी .. प्रयास करुँगी की छंद विधान के अनुरूप शुद्धता ला सकूं .. कृपया मार्गदर्शन करते रहिये .. हार्दिक आभार!
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