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बदरिया कहाँ गई // कान्ता राॅय

सावन की बुनझीसी सखी है तन में लगाए आग .......बदरिया कहाँ गई

गोर बदन कारी रे चुनरिया ,सर से सरकी आज ......बदरिया कहाँ गई

सावन भादों रात अंहारी थर - थर काँपय शरीर ...... बदरिया कहाँ गई

दादूर मोर पपीहा बोले कहाँ गये  रघुनाथ.....बदरिया कहाँ गई

अमुआँ की डारी झूले नर- नारी मैं दहक अंगार ....बदरिया कहाँ गई

उमड़ उमड़े नदी जल पोखर तन में रह गई प्यास...... बदरिया कहाँ गई

सब सखी पहिरय हरीयर चुड़ी मोरा कंगना उदास ...... बदरिया कहाँ गई

सावन पिया आवन कह गये नैहर कैसे जाऊँ ..... बदरिया कहाँ गई

सुध बिसरे मेरी प्रीत की प्रीतम सौतन घर किये वास ......... बदरिया कहाँ गई

तरूण बयस मोरा पिया तेजल भीजल देह लगे आग ...... बदरिया कहाँ गई

जग हरीयाली सगरे छाई मोरा मन सुखमास ....... बदरिया कहाँ गई

बेली चमेली करे अठखेली बरखा झींसी फुहार ......बदरिया कहाँ गई

पिया जब आये आस पुराये सावन हुआ मधुमास .....बदरिया आ ही गई

मौलिक और अप्रकाशित

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Comment

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Comment by kanta roy on August 11, 2015 at 6:39pm
हा हा हा हा .....इतनी सुंदर आत्मीयता भरे प्रोत्साहन पाकर मै मुग्ध हो उठी हूँ आदरणीया प्रतिभा जी । सादर नमन आपको
Comment by pratibha pande on August 11, 2015 at 2:54pm
बहुत भीनी भीनी सी सोंधी गंध लिए हुए है ये रचना , आपके रचनाधर्म के तरकश का एक और दिल पे लगने वाला तीर बधाई आपको आ०कांता जी
Comment by kanta roy on August 9, 2015 at 9:45pm
आदरणीय जवाहरलाल जी , हम सबको इस तरह के लेखन करने की बेहद जरूरत है । नई तकनीकों को अपनाते हुए हमें अपने पारम्परिक लेखन को भी नव सृजन से तरो ताजा करते रहना चाहिए । सादर नमन रचना पर प्रतिक्रिया हेतु ।
Comment by JAWAHAR LAL SINGH on August 9, 2015 at 12:12pm

हरी हरी सर से सरके चुनरिया बदरिया आयो हे हरी 

पिया बिन सूनी आज सेजरिया बदरिया आयो हे हरी

बिहार में प्रचलित कजरी के बोल मैं यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ आदरणीया कांता रॉय जी 

वैसे आपकी रचना सावन के मौसम के अनुरूप है और सावन में गीतों, झूलों, कजरियों का माहौल कभी रहता था ...आज यह सब लुप्तप्राय सा हो गया है ...सादर!

Comment by kanta roy on August 8, 2015 at 7:34am
आपका बचपन याद आना इस रचना पर मेरा रचना कर्म सफल हुआ आदरणीया डा. आशुतोष कुमार जी । इस तरह के लोकगीत हमारी माँ गाया करती थी बचपन में । ये गीत हमारे संस्कार और संस्कृति का हिस्सा रही है सदा से । इसकी मिठास दशकों पूर्व जितनी थी ये अाज भी उतनी ही कायम है बिलकुल मिश्री के समान । आभार आपको तहे दिल से ।
Comment by kanta roy on August 8, 2015 at 7:30am
रचना पर मुझे प्रोत्साहित करने के लिए दिल से आपको आभार आदरणीय कृष्णा मिश्रा जान गोरखपूरी जी ।
Comment by kanta roy on August 8, 2015 at 7:28am
मैने लोकगीत के आधार पर ही इस रचना पर कोशिश की है । मेरी इस कोशिश की सराहना के लिए हृदयतल से आभार आपको आदरणीय मिथिलेश जी
Comment by Dr Ashutosh Mishra on August 7, 2015 at 1:14pm

आदरणीया इस तरह की रचना पहली बार इस मंच पर पढ़ रहा हूँ ..इस रचना को पढ़कर बचपन के दिन याद आ गए जब इस तरह के मिलते जुलती रचनाएँ सुनने को मिल जाया करती थी //ढेर सारी बधाई के साथ सादर 

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on August 6, 2015 at 9:11pm

वाह! आ० आपकी रचनाकर्म के विविध रंग देखते ही बन रहे है! सावन की मस्ती में ओत-प्रोत इस लोगगीत पर तहेदिल से बधाई!


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Comment by मिथिलेश वामनकर on August 6, 2015 at 12:01pm

आदरणीया कांता जी, बहुत ही सुन्दर रचना हुई है. लालित्य से परिपूर्ण इस प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई. लोकगीतों की तर्ज़ पर इसे गुनगुनाते हुए आनंद आ गया. सादर 

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