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कामोदसामन्त : विनय प्रकाश

शायद अब इच्छाओं का अंत हो रहा है
यह सीमित शरीर अब अनंत हो रहा है

रे मन अचानक तुझे ये क्या हो गया है
खिलखिलाता था तू अब कुमंत हो रहा है

खुशियां बहुत सी बटोरी थी हमने भी
हर यादगार लम्हा अब अश्मंत हो रहा है

करीबी रिश्तों का मेरे मन के साथ सजाया
हर विचार शायद अब उमंत हो रहा है

करंड की भांति हर शरीर धरा पर मेरा भी
शहद या धार चली गई अब अस्वंत हो रहा है

मेरा चंचल मन जो नरेश था मेरे निर्णयों का
तृप्त है या विचलित पर हीनसामंत हो रहा है

भोगविलास और रिश्तों के बंधनों में था मूर्ख
अब मुक्त हो रहा है अब विद्यामंत हो रहा है

जो मन अक्सर भैरव गुनगुनाता था
हर पहर अब कामोदसामन्त हो रहा है

शायद अब इच्छाओं का अंत हो रहा है
यह सीमित शरीर अब अनंत हो रहा है

मौलिक एवं अप्रकाशित

"कामोदसामन्त" शाम केे वक़्त गाया जाने वाला एक राग है जैसे भैरवी भोर में गाया जाता है | यह कविता जीवन केे अंत समय में व्यक्ति केे मन में क्या विचार आते होंगे इसी पर लिखी गई है |

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Comment by Dr.Prachi Singh on July 9, 2020 at 8:12pm

आ० विनय जी 

सुन्दर द्विपदियाँ कही हैं आपने 
भाव बहुत प्यारे है लेकन शब्दों में थोड़ी कृत्रिमता है ...शिल्प में शब्दचयन में सहजता की कमी महसूस हुई 

गहन भाव भूमि पर कहन को संजोने के लिए बधाई स्वीकार करें 

कृपया ध्यान दे...

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