नेह के आंसू को सरजू कहता हूँ
अपनेपन से तुझको मैं तू कहता हूं।
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रात छत पे जब निकल आता है तू
इन सितारों को मैं जुगनू कहता हूँ। **
ये जो तन से मेरे आती है महक़..
मैं इसे भी तेरी खुशबू कहता हूँ।
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ये अदब,शोख़ी, नज़ाकत, लहज़े में..
मैं इसी लहज़े को उर्दू कहता हूँ।
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सब थकन मेरी पी जाती है ये धूप
मैं सदा को तेरी जादू कहता हूँ।
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जान कहता था जो तू ,सो अब भी मैं
जान खुदको तुझको जानू कहता हूँ।
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मौलिक व अप्रकाशित
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Comment
शुक्रिया आ. समर सर।
09753845522
आ. समर सर अपना न. देने की कृपा करें।
//मेरे कमेंट सीखने के लिए होते हैं और तर्कपूर्ण रूप से चीजों को मैं समझना चाहता हूं इसे हठ धर्मिता न समझें//
सीखना आपका हक़ है, निवेदन सिर्फ़ इतना है कि मेरी परेशानी को मद्दे नज़र रखते हुए जब आपको कुछ समझना हो तो फ़ोन पर समझ लिया करें,ज़ियादा लिखना मेरे लिये मुश्किल होता है ।
आ. रचना जी मैं आदरणीय समर सर का बहुत आदर करता हूँ मुझे भलीभाँति पता है किस दुश्वारियों में संघर्ष और समर्पण से समर सर कार्य करते हैं शायद जितनी मेरी उम्र है उससे भी अधिक समय से वो ग़ज़ल कह रहें हैं। देखिए संवाद करने से हम सीखते हैं वही मैंने किया है सभी के कार्य करने/सीखने का एक अलग तरीका होता है हर कोई अपने तरीके से आगे बढ़ता है....
जिस तरह गीतों में मुखड़े और अंतरे की धुन अलग होती है उसी तरह ग़ज़ल भी लगभग हर शेर में धुन रवानी में अंतर और उतार चढ़ाव के साथ गाये जाते हैं आप किसी भी बेहतरीन ग़ज़ल गाने वाले सिंगर को सुन लीजिए विशेष रूप से ऊला तो अलग ही धुन में अक्सर गाया जाता है और सानी को मतले के सानी से मिलाया जाता है।
अच्छा एक बात और कुछ ग़ज़लें केवल पढ़ने के भाव के साथ जन्म लेती हैं कुछ केवल गायन के लिए कुछ पर दोनों ही अच्छा लगता है।
एक और बात विचार के लिए कह रहा हूँ-------सोचिएगा ग़ज़ल की रवानी में लिखने वाला किस धुन में किस उतार चढ़ाव में लिख रहा है गा रहा है यह वही जाने, कोई शब्द को कितना समय देना है वह जाने। तो रवानी के लिए सिर्फ बह्र और अरकान ही जिम्मेदार नहीं हैं और भी बहुत कुछ है।
जिस प्रकार "भाषा के लिए व्याकरण है न कि व्याकरण के लिए भाषा।
उसी प्रकार " ग़ज़ल के लिए नियम हैं न कि नियम के लिए ग़ज़ल।
नियम बचे रहे और ग़ज़ल मर जाये तो क्या फ़ायदा???
अंत में यही कहूंगा मैं बेबात की बहस नहीं करता न ही किसी का अनादर। मेरे कमेंट सीखने के लिए होते हैं और तर्कपूर्ण रूप से चीजों को मैं समझना चाहता हूं इसे हठ धर्मिता न समझें सभी से मेरा निवेदन है।
आदरणीय समर कबीर सर् सादर नमस्कार। सर्,तबीअत सही न होने के बावज़ूद आपका हर रचना पर बारीक़ी से इस्लाह देने के लिए हम सब आपके आभारी हैं।
आदरणीय कृष मिश्रा जी की ग़ज़ल पढ़ कर मुझे भी रवानी में कमी महसूस हुई थी पर, कारण समझ नहीं पा रही थी।आपकी इस्लाह से बात समझ में आई।
सर् में भी मात्रा पतन कम से कम किया करने का प्रयास करूँगी।
विश्वास है कि कृष मिश्रा जी आपकी इस्लाह के अनुसार अपनी ग़ज़ल में सुधार करेंगे।
आदरणीय कृष मिश्रा जी नमस्कार। आपकी ग़ज़ल हमेशा एक अलग क्लेवर के साथ होती है।बधाई।जहाँ तक रवानी को लेकर बात है मैं पूर्णतया आदरणीय सर् से सहमत हूँ। आपको सर् की बात पर गौर करना चाहिए।
जैसी आपकी मर्ज़ी ।
आ. भाई बृजेश जी शुक्रिया आपका आपको ग़ज़ल पसंद आई जानकर अच्छा लगा।
इन दिनों की व्यस्तताओं में देर से कमेंट कर पाया इसके लिए खेद है..
आ. समर सर मैंने मतले को यूँ बाँधा है----
नेह के आं / 2122 / सू को सरजू / 2122/ कहता हूँ 212
अपनेपन से / 2122/ तुझको मैं तू /2122 / कहता हूं। 212
इसे यूँ भी कह सकता था
आँख के पानी को सरजू कहता हूँ
प्यार से जानां तुझे मैं तू कहता हूं।
या यूं भी--------
आँख के पानी को आँसू कह दिया।
प्यार से साकी तुझे तू कह दिया।
लेकिन आदरणीय ऐसा नहीं किया क्योंकि किसी विशेष संदर्भ में / सुनने में बेहतर / बिल्कुल आम जनमानस की भाषा हो/ जो शब्द वास्तविक रूप से प्रयुक्त होते हों,बिल्कुल नेचुरल रूप से अनायास ही जबाँ पर आ जाये उनका प्रयोग करना मैं ज्यादा बेहतर समझता हूँ।
मेरे ख्याल से कोई भी जो कुछ सालों से ग़ज़ल से जुड़ा है के पास इतने शब्द के भंडार होते हैं की अरकान के हिसाब से पूरी ग़ज़ल में एकाध मात्रा पतन हो या वो भी न हो ग़ज़ल कह जाए। मेरा मानना है सुंदरता/ किसी विशेष शब्द की खनक/ नैसर्गिक रूप से आने वाले शब्दों के प्रयोग में यदि मात्रा पतन वाज़िब ढंग से हो रहा है तो करना चाहिए हां अनावश्यक रूप से जरूर इससे बचना चाहिए।
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