2122 1212 22 (112)
मुझको तू गर मिला नहीं होता
इश्क़ है क्या पता नहीं होता।
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एक पल को जुदा नहीं होता.
ग़म तेरा बेवफ़ा नहीं होता।
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रोज इक ख़त मैं लिखता हूँ तुझको
और तेरा 'पता' नहीं होता।
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दो जहाँ हमने एक कर डाले
दर्द बढ़कर दवा नहीं होता।
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इश्क़ है गर तो सोचता है क्या?
इश्क़ होता है या नहीं होता।
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मैं किसी और का न हो पाया
और कभी वो मेरा नहीं होता।
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वख़्त होता है अच्छा और बुरा
शख्स अच्छा बुरा नहीं होता।
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इश्क़ था इश्क़! ज़िद नहीं वर्ना
तू किसी और का नहीं होता।
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चाहतों की अज़ब हैं दूरियाँ भी..
फ़ासिला फ़ासिला नहीं होता।
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मौलिक व अप्रकाशित
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Comment
हार्दिक आभार भाई बृजेश कुमार जी।
बढ़िया भावपूर्ण भाई.. हार्दिक बधाई
आ. अमीरुद्दीन अमीर सर आदाब! आपकी मुक्तकंठ से प्रशंसा पाकर दिल को बहुत सुकून मिला, तकाबुले रदीफ़ पर आपके समर्थन से आश्वस्त हुआ।अंतिम शेर के लिए सुझाया गया मिसरा निश्चित रूप से लयात्मकता की दृष्टि से बेहतर है लेकिन शेर के कथ्य के प्रभाविकता को पूरे तौर पे स्पस्ट नहीं कर पा रहा देखिएगा सर।
सादर।
आदरणीय सुशील सरन जी बहुत बहुत शुक्रिया हौसलाफजाई के लिए।
आ. भाई गुमनाम पिथौरागढ़ी जी लंबे समय बाद आपको obo में अपनी रचना पर पाकर खुशी हुई।हौसलाफजाई के लिए शुक्रिया।
आ.समर सर सादर प्रणाम!
लंबे समय बाद कमेंट पोस्ट न होने की समस्या आखिरकार एडमिन जी को मेल करने पर दूर हो गयी।
//'तू किसी भी तरह मेरा न हुआ
वर्ना दुनिया में क्या नहीं होता'
ये शैर किसी शाइर से हू ब हू टकरा रहा है,इसे हटा देना उचित होगा:-//
कमाल है ग़ज़ब का हादसा हो गया!! खुशी भी है और ग़म भी के मोमिन खाँ मोमिन की इतनी मक़बूल ग़ज़ल का शे'र मेरे जेहन का हिस्सा बना और मुझे पता न चला।मोमिन साहब की ये ग़ज़ल शायद 6-7 वर्ष पूर्व मैंने पढ़ी होगी।बहरहाल ग़ज़ल से ये शे'र हटा रहा हूँ।
अन्य शे'रों में आदरणीय आपने तकाबुल-ए-रदीफ़ के लिए कहा है इस दोष को इस तौर पे ग़ज़ल में रख रहा हूँ कि ये स्वरान्त के रूप में हो रहा है और फ़ेरबदल करने पर शे'र में वो बात नहीं बन पाएगी जो है,अगर बेहतरी होती तो अवश्य करता।
आदरणीय अपना आशीर्वाद बनाये रक्खें एक दिन जरूर मेरे ग़ज़ल का प्रयास ग़ज़ल में तब्दील हो जाएगा।
जनाब कृष मिश्रा 'जान' साहिब आदाब, इन्सानी जज़्बात से लबरेज़ शानदार ग़ज़ल कही है आपने कई अशआर तक़ाबुल-ए-रदीफ़ के बावजूद इतने उम्दा हुए हैं कि तक़ाबुल-ए-रदीफ़ को नज़र-अंदाज़ किया जा सकता है जैसे कि
''इश्क़ था इश्क़! ज़िद नहीं वर्ना
तू किसी और का नहीं होता।'' वाह... और हासिल-ए-ग़ज़ल ये वाला-
''एक पल को जुदा नहीं होता.
ग़म तेरा बेवफ़ा नहीं होता। लाजवाब। मगर, आख़िरी शे'र में 'दूरियाँ' की वजह से लय बाधित हो रही है, चाहें तो यूँ कर सकते हैं -
''जान' चाहत में दूर होकर भी..
फ़ासिला फ़ासिला नहीं होता।'' सादर।
आदरणीय बहुत सुंदर भावों की ग़ज़ल. हार्दिक बधाई सर
वाह अच्छी गज़ल हुइ है ...
जनाब जान गोरखपुरी जी आदाब, ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है, बधाई स्वीकार करें ।
'तू किसी भी तरह मेरा न हुआ
वर्ना दुनिया में क्या नहीं होता'
ये शैर किसी शाइर से हू ब हू टकरा रहा है,इसे हटा देना उचित होगा:-
'तुम हमारे किसी तरह न हुए
वरना दुनिया में क्या नहीं होता'
ये शैर लिख कर गूगल पर सर्च करेंगे तो शाइर का नाम भी मालूम हो जाएगा ।
'इश्क़ है गर तो सोचता है क्या?
इश्क़ होता है या नहीं होता'
इस शैर में तक़ाबुल-ए-रदीफ़ दोष है,देखें ।
'मैं किसी और का न हो पाया
अर कभी वो मेरा नहीं होता
इस शैर में भी तक़ाबुल-ए-रदीफ़ दोष देखें,और सानी में 'अर' को "और लिखें ।
वख़्त होता है अच्छा और बुरा
शख्स अच्छा बुरा नहीं होता।
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इश्क़ था इश्क़! ज़िद नहीं वर्ना
तू किसी और का नहीं होता।
इन अशआर में भी तक़ाबुल-ए-रदीफ़ देखें ।
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