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एक अनबुझ प्यास लेकर जी रहे हैं -लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

२१२२/२१२२/२१२
*
जो नदी की  आस  लेकर जी रहे हैं
एक अनबुझ प्यास लेकर जी रहे हैं।१।
*
है बहुत धोखा सभी की साँस में यूँ
परकटे  विश्वास  लेकर  जी  रहे हैं।२।
*
जो पुरोधा  हैं  यहाँ  स्वाधीनता के
साथ अनगिन दास लेकर जी रहे हैं।३।
*
भोग में डूबे स्वयम् उपदेश देकर
कौन ये सन्यास लेकर जी रहे हैं।४।
*
जिन्दगी उन को लुभा ले हर्ष देकर
जो मरण की आस लेकर जी रहे हैं।५।
*
एक दिन तो ईश को सुनना पड़ेगा
जीभ में अरदास लेकर जी रहे हैं।६।
*
मौलिक/अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

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Comment by Chetan Prakash on June 30, 2022 at 1:49pm

आदाब, भाई, लक्ष्मण लिंह धामी मुसाफिर साहब, बह्र रमल मुसद्दस सालिम (2122 2122 2122 ) में कहीं अचछी गज़ल , बधाई । हाँ, अवजान अधूरे लिखे हैं, आपने, शायद भूल हुई है ।

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