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सीमित से दायरे में न पल भर उड़ान हो
उनको भी अब तो एक बड़ा आसमान हो।१।
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दुत्कार अब न तुम लिखो हिस्से अनाथ के
राजन सभी के नाथ हो सब को समान हो।२।
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केवल हों कर्म ध्यान में नित मान के लिए
इस को नहीं जरूरी बड़ा खानदान हो।३।
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मन्जिल की दूरियों को अभी पाटना इन्हें
इतनी अधिक न पाँव के हिस्से थकान हो।४।
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जनता को खुद ही चाहिए उनको न ताज दे
जिस की भी लोकराज में कड़वी जबान हो।५।
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हिस्से में आये पंख जो कुदरत से रोक मत
पन्छी को चन्द रोज न सदियों उड़ान हो।६।
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बारूद बम की फस्ल को अब गौंण कीजिए
दुनिया में सब की और न साँसत में जान हो।७।
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केवल बहाना खोज के जलती हैं बस्तियाँ
सबकी जुबाँ पे आज तो सुलझा बयान हो।८।
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इन्सानियत के खून को पनपे न सोच अब
कोशिश करो कि और न कोई बुहान हो।९।
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मौलिक/अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"
Comment
आ. भाई अमीरुद्दीन जी, सादर अभिवादन। गजल पर उपस्थिति, स्नेह व सुझाव के लिए आभार।
आ. भाई चेतन जी सादर अभिवादन। गजल पर उपस्थिति व स्नेह के लिए आभार।
गजल को बेहतर करने का प्रयास कर रहा हूँ। यदि आपकी ओर से कोई बेहतर सुझाव हों तो दीजिएगा। प्रयास के बाद उपस्थित होता हूँ । सादर..
आदरणीय लक्ष्मण धामी भाई मुसाफ़िर जी आदाब, सुंदर भावों से सुसज्जित अच्छी ग़ज़ल हुई है मुबारकबाद पेश करता हूँ। मतले के मिसरा-ए-सानी के लिए एक सुझाव -
सीमित से दायरे में न पल भर उड़ान हो
उड़ने के वास्ते तो खुला आसमान हो।१।
दूसरे शे'र में 'अब' को 'सब' करने से रब्त बढ़ जाएगा, छटा शे'र ग़ैर ज़रूरी है, अंतिम शे'र में 'बुहान' शब्द शायद चीन का शहर 'वुहान' होगा। सादर।
नमस्कार, आ. भाई लक्ष्मण सिंह धामी 'मुसाफिर' क्षमा करें, यह ग़ज़ल आपकी प्रतिभा से न्याय नहीं कर पाई ! मुझे लगता है, आप इस प्रस्तुति को किंचित और समय दें , तो बेहतर गज़ल हो जाएगी ! कृपया अन्यथा न लें !
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