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मोल रोटी का उसी को - लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

२१२२/२१२२/२१२२/२१२
*
अब न काली रातों में ही चूमती फिरती है लब
भोर में भी यह  उदासी  चूमती  फिरती है लब।१।
*
वो जमाना और था  जब प्यार था पर्दानशीं 
आज तो हर बेहयायी चूमती फिरती है लब।२।
*
जेब खाली की न घर में  पूछ होती आजकल
धन मिले तो स्वर्ग दासी चूमती फिरती है लब।३।
*
मोल रोटी का उसी को  हम  से  बढ़कर ज्ञात है
नित्य जिसके सिर्फ बासी चूमती फिरती है लब।४।
*
हर थकन से  मुक्ति  पाती  देह  जर्जर आज भी
जब गले लग झट से बच्ची चूमती फिरती है लब।५।
*
मौलिक/अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

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Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 29, 2023 at 10:53pm

आ. भाई नीलेश जी, सादर अभिवादन। गजल पर उपस्थिति, स्नेह और उत्साहवर्धन के लिए आभार।

त्रुटिपूर्ण मिसरों पर उत्तम सुझाव के लिए हार्दिक धन्यवाद।

Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 29, 2023 at 1:51pm

आ लक्ष्मण जी,

अच्छी ग़ज़ल हुई है।

मतले के ऊला को यूं कर लें

अब न काली रातों में ही......

दूसरे शेर के ऊला में एक मात्रा बढ़ रही है। भी को था से बदल दें, काम हो जाएगा

सादर

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