(एक अभिनव प्रयोग)
खुसरो की बेटी कहलाये
भारतेंदु संग रास रचाये
कविजन सारे जिसके प्रहरी
क्या वह कविता? नहिं कह-मुकरी!
बांच जिसे जियरा हरषाये
सोलह मात्रा छंद सुहाये
पुलकित नयना बरसे बदरी
क्या चौपाई ? नहिं कह-मुकरी!
चैन चुराये दिल को भाये
चिर-आनंदित जो कर जाये
मन की कहती फिर भी मुकरी!
क्या वह सजनी? नहिं कह-मुकरी!
--अम्बरीष श्रीवास्तव
Comment
आदरणीय भाई जी,
अपने अंदाज़ में कह-मुकरियों की लाजवाब पेशकश की आपने| मुकरी के प्रणेता और उसे पुनः प्रतिष्ठा प्रदान करने वाले दोनों महानुभावों को नमन है| सादर,
सौरभ सर , हालाँकि आपके आलेख में स्पष्ट लिखा है कि //प्रथम तीन वर्णन-पंक्तियों के माध्यम से साजन या प्रियतम या पति के विभिन्न रूप परिलक्षित होते हैं//
यहाँ थोड़ी भिन्नता देखी तो पूछ लिया ! :-))
इस प्रश्न से सम्बन्धित इसी मंच पर कई चर्चा-परिचर्चाएँ हो चुकी हैं.
’का सखि साजन’ के अलावे शायद ही अन्य प्रश्न सामने आ पाया है. ’साजन’ को वाराणसी शैली में ’सज्जन’ जरूर किया गया है, ऐसे भी उदाहरण हैं. लेकिन अन्य ’बूझ’ का उदाहरण नहीं आ पाया है.
अन्य प्रश्न, जैसा कि यहाँ प्रयुक्त हुए हैं, वे प्रासंगिक भर हैं. अन्यथा भर.
बहुत बढ़िया कह मुकरियाँ ! लेकिन कह मुकरी को "का सखी साजन" के प्रारूप के अलावा भी किसी भी रूप में लिखा जा सकता है या इसे नई शुरुआत समझा जाए ?
बहुत खूब आदरणीय सौरभ जी !
हँसती ’दोअर्थी’ कह-कह कर
करे इशारे तिर्यक अक्सर
बढ़े न खुलके, चलती सँकरी
का वो तिरिया ? ना ’कह-मुकरी’ ...... --सौरभ पाण्डेय
वाह वाह वाह .क्या बात है ..... हार्दिक बधाई मित्रवर .......:-))))
दो अर्थी है जिसकी वाणी
मुकरे निज से हँस कल्याणी
जीवन रस की छलके गगरी
जीवन साथी? नहिं कह-मुकरी!
आदरेया सीमा जी, आप जैसी विदुषी की सराहना पाकर यह सृजन धन्य हो उठा है ! अतएव आपके प्रति हार्दिक आभार ज्ञापित कर रहा हूँ ! सादर
धन्यवाद भ्राता अरुण जी !
//अधरों पर मुस्कान जगाए
गुप-चुप दिल के भेद बताए
है वो एक रहस्मय खबरी!
क्या सखी सजना? न न कह-मुकरी!//
सराहना हेतु हार्दिक धन्यवाद आदरेया डॉ० प्राची जी, प्रतिक्रिया में अति सुंदर कह मुकरी रची है आपने......साधुवाद ....
इससे प्रेरित होकर एक और कह-मुकरी उपजी है ....
हम पर उसका पूरा हक रे
नैनों से कह उससे मुकरे
चलती तिरछी राहें सँकरी
क्या वह सजनी? नहिं कह मुकरी!
सम्यक कहा आदरणीय अम्बरीषभाईजी. बहुत खूब !
आपही के स्वर में हम सुर लगायें -
हँसती ’दोअर्थी’ कह-कह कर
करे इशारे तिर्यक अक्सर
बढ़े न खुलके, चलती सँकरी
का वो तिरिया ? ना ’कह-मुकरी’ .. .... हा हा हा हा .........
कह-मुकरी पर एक आलेख भी चस्पां है इन्हीं पन्नो पर.
http://www.openbooksonline.com/forum/topics/5170231:Topic:153703
सादर
वाह भ्राताश्री बेहद खुबसूरत कह-मुकरियां, बहुत - बहुत बधाई.
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