भोली जनता को नेता जी मूर्ख बनाना बंद करो।
जनता जाग गई अब दिल्ली धौंस दिखाना बंद करो॥
जन्तर मन्तर से जनता का आजादी अभियान शुरू।
झूठे वादे तानाशाही गया जमाना बंद करो॥
हम सब के मत से ही नेता तुम इतने मतवाले हो।
है तेरी कुछ औकात नहीं रौब दिखाना बंद करो॥
चूस रहे हो खून हमारा अब हमको अहसास हुआ।
शहद लगे विषधर डंकों को पीठ चुभाना बंद करो॥
हम सबके श्रम के पैसों से पाल रहे हो तुम गुण्डे।
परदे के पीछे से छुपकर तीर चलाना बंद करो॥
हुंकार उठे हैं अब प्यादें खैर मनाओ राजा जी।
शतरंजी भाड़े के घोड़ों कूद लगाना बंद करो॥
जब जब धरती के धूल उड़े तब-तब आंधी आयी है।
इसके आगे महल उड़े हैं सामियाना बंद करो॥
Comment
//गुरदेव क्या यह किसी बह्र के आसपास है?//
हमने अपनी टिप्पणी में कहा है भाई.
सिरफिर है यहाँ बहुत अब मुर्ख बनाना बंद करो
विन्ध्येश्वरी भाई, आपकी प्रस्तुति को प्राथमिक तौर पर ग़ज़ल कही जायेगी, काफिया, रदीफ़ का बढ़िया निर्वहन हुआ है, ग़ज़ल हेतु वजन और बहर, तकती आदि की जानकारी आप ग़ज़ल की बातें समूह से देख सकते है ।
अंत में => सवाल बचकाना नहीं है :-)
पन्द्रह गाफ़ के मिसरे पर हुए इस तेवरदार ग़ज़ल के लिए बधाई, विंध्येश्वरी प्रसाद जी.. ..
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