कंह गोरी पनघट कहाँ,कंह पीपल की छांव।
पगडंडी दिखती नहीं,बदल रहा है गांव॥
बदल रहा है गाँव,खत्म है भाईचारा।
कुछ परिवर्तन ठीक,किन्तु कुछ नहीं गवारा॥
ग्लोबल होते गाँव,गाँव की मार्डन छोरी।
कहें विनय नादान,कहाँ पनघट कंह गोरी॥
पगडंडी ये गाँव की,सड़क बनी बेजोड़।
जो जाती है शहर को,जन्म-भूमि को छोड़॥
जन्म-भूमि को छोड़,कमाने रोजी जाते।
करते दिनभर काम,रात फुटपाथ बिताते॥
भर विकास का दम्भ,शहर कितना पाखंडी।
हमको आये याद,गाँव की वो पगडंडी॥
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
हमको आये याद,गांव की वो पगडंडी॥...sach bahut yaad aati hai.....
बहुत गहरी बात त्रिपाठी जी शानदार रचना के लिए हार्दिक साधुवाद !!
wah bhai...........sunder hn aapki kundliyan.............
पगडंडी ये गांव की,सड़क बनी बेजोड़।
जो जाता है शहर को,जन्म-भूमि को छोड़॥
जन्म-भूमि को छोड़,कमाने रोजी जाते।
करते दिनभर काम,रात फुटपाथ बिताते॥
भर विकास का दम्भ,शहर कितना पाखंडी।
हमको आये याद,गांव की वो पगडंडी॥
बहुत बढ़िया है आदरणीय -
मॉडर्न की प्रिंटिंग ठीक कर लें-
एक प्रतिक्रिया -
आभार
प्रेरणा मिली
सादर -
गोरु गोरस गोरसी, गौरैया गोराटि ।
गो गोबर गोरस गणित, गोशाला परिपाटि ।
गोशाला परिपाटि, पञ्च पनघट पगडंडी ।
पीपल पलथी पाग, कहाँ सप्ताहिक मंडी ।
गाँव गाँव में जंग, जमीं जर जल्पक जोरू ।
भिन्न भिन्न दल हाँक, चराते रहते गोरु ॥
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