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गुमशुदा खुशियां कहां रहने लगी है आज छुप कर

गुमशुदा खुशियाँ कहाँ रहने लगी है आज छुप कर

***************************************

दर्द कैसे कम हुआ ये आंसुओं पूछ लेना

क्या अन्धेरों से डरे थे, तुम दियों से पूछ लेना

खुद जले थे,और कैसे, वो अन्धेरों से लडे थे

जानना चाहो अगर तो,जुगनुओं से पूछ लेना

आपकी प्रतिक्रिया कितनी सही कितनी ग़लत है

फैसला करने से पहले दोस्तों से पूछ लेना

रहबरी के नाम पे तो लूट जारी है यहां पर

रास्ता भूलो अगर तो रहजनों से पूछ लेना

गुमशुदा खुशियाँ कहाँ रहने लगी है आज छुप कर  

जो भी ग़म घेरे हुये हैं, उन ग़मों से पूछ लेना

किस तरह मैने गुज़ारा वक़्त अपना उन दिनों में

तुम घिरोगे जब कभी तो उलझनों से पूछ लेना

.

गिरिराज भंडारी

मौलिक एवँ अप्रकाशित

 

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Comment by Dr Ashutosh Mishra on August 19, 2013 at 8:42am

गुमशुदा खुशियाँ कहाँ रहने लगी है आज छुप कर  

जो भी ग़म घेरे हुये हैं, उन ग़मों से पूछ लेना

किस तरह मैने गुज़ारा वक़्त अपना उन दिनों में

तुम घिरोगे जब कभी तो उलझनों से पूछ लेना...लाजबाब ...क्या बात है ..सादर बधाई के साथ 

Comment by बृजेश नीरज on August 19, 2013 at 7:30am

बहुत ही सुन्दर प्रयास है आपका! भाव तो बहुत ही अच्छे हैं। यदि बहर का भी जिक्र होता तो शिल्प को समझने में आसानी होती। इस प्रयास पर आपको हार्दिक बधाई! 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 18, 2013 at 6:55pm

जितेन्द्र भाई , आपका बहुत बहुत धन्यवाद !!!


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 18, 2013 at 6:54pm

आदरणीया अन्नपूर्णा जी , ह्र्दय से आभार आपका !!!


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 18, 2013 at 6:52pm

विजय भाई , हौसला अफज़ाई के लिये बहुत शुक्रिया !! आभार !!

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on August 18, 2013 at 6:36pm

आपकी प्रतिक्रिया कितनी सही कितनी ग़लत है

फैसला करने से पहले दोस्तों से पूछ लेना.............वाह! बहुत शानदार शेर

हार्दिक बधाई आदरणीय गिरिराज जी

Comment by annapurna bajpai on August 17, 2013 at 1:42pm
आपकी प्रतिक्रिया कितनी सही कितनी ग़लत है
फैसला करने से पहले दोस्तों से पूछ लेना

adarniy Giriraj ji bahut badhiya gazal ke liye shubhkamnyen .
Comment by विजय मिश्र on August 17, 2013 at 12:26pm
आग्रह -: 'उधर ' को 'उधार' पढ़ने की दया करें !
Comment by विजय मिश्र on August 17, 2013 at 12:24pm
" इस दहलीज से काई नहीं जाने वाली "
और फिर
" हम नहीं हैं आदमी हम झुनझुने हैं "
आपकी कविता के सम्मान में कहने केलिए मेरे पास दुष्यन्तजी से उधर लिए इन शब्दों से फाजिल कुछ भी नहीं |आज के सामान्यजन की वेदना को यहाँ उचित उभार दिया है आपने | आदर एवं हार्दिक बधाई गिरिराजजी .

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 16, 2013 at 10:25pm

नीरज भाई , आभार आपका !!

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