22 22 22 22 22 2
तू पर उगा, मैं आसमाँ तलाश रहा हूँ
हम रह सकें ऐसा जहाँ तलाश रहा हूँ
ज़र्रों में माहताब का हो अक्स नुमाया
पगडंडियों में कहकशाँ तलाश रहा हूँ
खामोशियाँ देतीं है घुटन सच ही कहा है
मैं इसलिये तो हमज़बाँ तलाश रहा हूँ
जलती हुई बस्ती की गुनहगार हवा अब
थम जाये वहीं,.. वो बयाँ तलाश रहा हूँ
मैं खो चुका हूँ शह’र तेरी भीड़ में ऐसे
हालात ये, कि ज़िस्म ओ जाँ तलाश रहा…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on November 7, 2017 at 8:22am — 35 Comments
22 22 22 22 22 22 22 2
वो जितना गिरता है उतना ही कोई गिर जाये तो
उसकी ही भाषा में उसको सच कोई समझाये तो
सूरज से कहना, मत निकले या बदली में छिप जाये
जुगनू जल के अर्थ उजाले का सबको समझाये तो
मैं मानूँगा ईद, दीवाली, और मना लूँ होली भी
ग़लती करके यार मेरा इक दिन ख़ुद पे शरमाये तो
तेरी ख़ातिर ख़ामोशी की मैं तो क़समें खा लूँ, पर
कोई सियासी ओछी बातों से मुझको उकसाये तो
कहा तुम्हारा मैनें माना,…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on October 29, 2017 at 6:11pm — 25 Comments
2122/1122 1122 1122 22 /112
जीभ ख़ुद की है तो दांतों से दबा भी न सकूँ
कैसे खामोश रहे इस को सिखा भी न सकूँ
उनका वादा है कि ख़्वाबों में मिलेंगे मुझसे
मुंतज़िर चश्म को अफसोस सुला भी न सकूँ
तश्नगी देख मेरी आज समन्दर ने कहा
कितना बदबख़्त हूँ मैं प्यास बुझा भी न सकूँ
मेरे रस्ते में जो रखना तो यूँ पत्थर रखना
कोशिशें लाख करूँ यार हिला भी न सकूँ
यहाँ तो सिर्फ अँधेरों के तरफदार बचे
छिपा रक्खा है,…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on September 27, 2017 at 9:00am — 31 Comments
2122 2122 212
दो पहर की धूप भी अच्छी लगी
साथ उनके हर कमी अच्छी लगी
यादों की थीं खुश्बुयें फैलीं वहाँ
तुम न थे फिर भी गली अच्छी लगी
कब कहा मैनें कि मैं था शादमाँ
कुल मिला कर ज़िन्दगी अच्छी लगी
सब में रहता है ख़ुदा ये मान कर
जब भी की तो बन्दगी अच्छी लगी
हाँ, ज़बाँ से भी कहा था कुछ मगर
जो नज़र ने थी कही, अच्छी लगी
दोस्ती तो थी हमारी नाम की
पर तुम्हारी दुश्मनी,…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on September 18, 2017 at 3:30pm — 17 Comments
1212 1122 1212 22
नहीं ये ठीक, मैं तन्हा उदास बैठा था
मैं उसकी ताब से खो कर हवास बैठा था
नज़र उठा के तेरी सिम्त कैसे करता मैं
नज़र से चल के कोई दिल के पास बैठा था
कहीं नदी की रवानी थमी थी पत्थर से
कहीं लिये कोई सदियों की प्यास बैठा था
है मोजिज़ा कि ख़ुदा का करम बहा मुझ पर
वो तर बतर हुआ जो मेरे पास बैठा…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on September 16, 2017 at 8:00am — 29 Comments
221 2121 1221 212
नफरत कहाँ कहाँ है मुहब्बत कहाँ कहाँ
मैं जानता हूँ होगी बग़ावत कहाँ कहाँ
गर है यक़ीं तो बात मेरी सुन के मान लें
लिखता रहूँगा मैं ये इबारत कहाँ कहाँ
धो लीजिये न शक़्ल मुआफ़ी के आब से
मुँह को छिपाये घूमेंगे हज़रत कहाँ कहाँ
कल रेगज़ार आशियाँ, अब दश्त में क़याम
ले जायेगी मुझे मेरी फित्रत कहाँ कहाँ
कर दफ़्न आ गया हूँ शराफत मैं आज ही
सहता मैं शराफत की नदामत कहाँ…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on August 30, 2017 at 9:00am — 29 Comments
2122 1212 22 /122
मंज़रे ख़्वाब से निकल जायें
अब हक़ीकत से ही बहल जायें
ज़ख़्म को खोद कुछ बड़ा कीजे
ता कि कुछ कैमरे दहल जायें
तख़्त की सीढ़ियाँ नई हैं अब
कोई कह दे उन्हें, सँभल जायें
मेरे अन्दर का बच्चा कहता है
चल न झूठे सही, फिसल जायें
शह’र की भीड़ भाड़ से बचते
आ ! किसी गाँव तक निकल जायें
दूर है गर समर ज़रा तुमसे
थोड़ा पंजों के बल उछल जायें
चाहत ए रोशनी में…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on August 23, 2017 at 8:11pm — 37 Comments
2122 1212 112/22
गर अँधेरा है तेरी महफिल में
हसरत ए रोशनी तो रख दिल में
खुद से बेहतर वो कैसे समझेगा ?
सारे झूठे हैं चश्म ए बातिल में
क़त्ल करने की ख़्वाहिशों के सिवा
और क्या ढूँढते हो क़ातिल में
बेबसी, दर्द और कुछ तड़पन
क्या ये काफी नहीं था बिस्मिल में ?
फ़िक्र क्या ? बाहरी जिया न मिले
रोशनी है अगर तेरे दिल में
कोई तो कोशिश ए नजात भी हो
अश्क़ बारी के…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on August 10, 2017 at 8:30am — 30 Comments
2122 2122 212
दूध में खट्टा गिरा लगता तो है
काम साज़िश से हुआ,लगता तो है
था हमेशा दर्द जीवन में, मगर
दे कोई अपना, बुरा, लगता तो है
बज़्म में सबको ही खुश करने की ज़िद
आदमी वो सरफिरा, लगता तो है
सच न हो, पर गुफ़्तगू हो बन्द जब,
बढ़ गया कुछ फासिला, लगता तो है
गर मुख़ालिफ हो कोई जुम्ला, मेरे
दोस्त अब दुश्मन हुआ, लगता तो है
ज़िन्दगी की फ़िक्र जो करता न था
मौत से वह भी…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on August 7, 2017 at 8:30am — 23 Comments
2122 1212 22/112
अब यहाँ पर विगत हुआ जाये
या, जहाँ से विरत हुआ जाये
खूब दीवार बन जिये यारो
चन्द लम्हे तो छत हुआ जाये
कोई खोले तो बस खला पाये
प्याज़ की सी परत हुआ जाये
ताब रख कर भी सर उठाने की
क्यों भला दंड वत हुआ जाये
आग, पानी , हवा की ले फित्रत
हैं जहाँ, जाँ सिफत हुआ जाये
खूबी ए आइना बचाने को
क्यूँ न पत्थर फ़कत हुआ…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on August 6, 2017 at 6:00pm — 24 Comments
1222 1222 122
वो दहशत गर्द है या मुस्तफ़ा है
क्या तुमने फैसला ये कर लिया है ?
अजब मासूम है क़ातिल हमारा
वो ख़ूँ बारी से अब दहशत ज़दा है
तमाशाई के सच को कौन जाने ?
वो सच में मर रहा है, या अदा है
वो सारी ख़ूबियाँ पत्थर की रख कर
किया है मुश्तहर... वो.. आइना है
कज़ा से बस कज़ा की बात होगी
हमारा बस यही इक फैसला है
बहुत दूरी नहीं है, पर चला जो
कभी मस्ज़िद से मन्दिर... हाँफता…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on July 7, 2017 at 10:10pm — 18 Comments
2122 1212 22 /112
चाहे ग़ालिब, या फिर शकील आये
गलतियाँ कर.., अगर दलील आये
मिसरे मेरे भी ठीक हो जायें
साथ गर आप सा वक़ील आये
ख़ुद ही मुंसिफ हैं अपने ज़ुर्मों के
और अब खुद ही बन वक़ील आये
भीड़ में पागलों की घुसना क्यों ?
हो के आखिर न तुम ज़लील आये
ज़िन्दा लड़की ही घर से निकली थी
जाने क्या सोच कर ये चील आये
आग-पानी सी दुश्मनी रख कर
बह के पानी सा, बन ख़लील…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on June 11, 2017 at 8:30am — 6 Comments
221 2121 1221 212
हो चाह भी, तो कोई ये हिम्मत न कर सके
तेरी जफ़ा की कोई शिकायत न कर सके
तुम क़त्ल करके चौक में लटका दो ज़िस्म को
ता फिर कोई भी शौक़ ए बगावत न कर सके
हाल ए तबाही देख तेरी बारगाह की
हम जायें बार बार ये हसरत न कर सके
बारगाह - दरबार
मैंने ग़लत कहा जिसे, हर हाल हो ग़लत
तुम देखना ! कोई भी हिमायत न कर सके
बन्दे जो कारनामे तेरे नाम से किये
हम चाह कर ख़ुदा की इबादत न कर…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on May 17, 2017 at 7:24am — 27 Comments
2122 1212 22 /112
मेरी मदहोशियाँ भी ले जाना
मेरी हुश्यारियाँ भी ले जाना
इक ख़ला रूह को अता कर के
आज तन्हाइयाँ भी ले जाना
जाने किस किस से तेरी अनबन हो
थोड़ी खामोशियाँ भी ले जाना
दिल को दुश्वारियाँ सुहायें गर
मुझसे तब्दीलियाँ भी ले जाना
कामयाबी न सर पे चढ़ जाये
मेरी नाकामामियाँ भी ले जाना
राहें यादों की रोक लूँ पहले
फिर तेरी चिठ्ठियाँ भी ले जाना
बे…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on May 15, 2017 at 10:19am — 23 Comments
( दूसरे शेर के ऐब ए तनाफुर को कृपया स्वीकार करें )
2122 1212 22/112
ज़ह’नियत यूँ न बरहना करिये
अपने जामे में ही रहा करिये
आब ठंडक ही दे हमें हरदम
आग, गर्मी ही दे दुआ करिये
बेवफा हो गये हैं जो साबित
उनसे क्या खा के अब वफ़ा करिये
जुगनुओं की चमक चुरायी है
शम्स ख़ुद को न अब कहा करिये
सिर्फ बीमार कह के चुप न रहें
इब्न ए मरियम हैं, तो शिफ़ा…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on May 10, 2017 at 8:00am — 12 Comments
2122 1212 22 /112
क़ैद को क्यों नजात कहता है
क्या कज़ा को हयात कहता है ?
तीन को अब जो सात कहता है
बस वही ठीक बात कहता है
क्यूँ न तस्लीम उसको कर लूँ मैं
वो मिरे दिल की बात कहता है
कैसे कह दूँ कि वास्ता ही नहीं
रोज़ वो शुभ प्रभात कहता है
ऐतराज उसको है शहर पे बहुत
हाथ अक्सर जो हात कहता है
उसकी बीनाई भी है शक से परे
जो सदा दिन को रात कहता है
जीत जब…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on May 8, 2017 at 10:00am — 21 Comments
1- आंतरिक सम्बन्ध
**************
मैंने पीटा तो दरवाज़ा था
हिल उठी साँकल ...
खड़ खड़ कर के ....
और..
आवाज़ अन्दर से आयी
कौन है बे.... ?
बस...
मै समझ गया
तीनों के आंतरिक सम्बन्धों को
******
2- आग और पानी
*****************
आग बुझे या न बुझे
आग लग जाना दुर्घटना है, या साजिश
किसे मतलब है
इन बेमतलब के सवालों से
ज़रूरी है, अधिकार ....
पानी पर
सारा झगड़ा इसी…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on May 6, 2017 at 9:00am — 12 Comments
1222 1222 122
है तर्कों की कहाँ.. हद जानता हूँ
मुबाहिस का मैं मक़्सद जानता हूँ
करें आकाश छूने के जो दावे
मैं उनका भी सही क़द जानता हूँ
बबूलों की कहानी क्या कहूँ मैं
पला बरगद में, बरगद जानता हूँ
बदलता है जहाँ, पल पल यहाँ क्यूँ
मै उस कारण को शायद जानता हूँ
पसीने पर जहाँ चर्चा हुआ कल
वो कमरा, ए सी, मसनद जानता हूँ
यक़ीनन कोशिशें नाकाम होंगीं
मै उनके तीरों की जद,…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on May 1, 2017 at 11:00am — 22 Comments
2122 1212 22 /112
मेरी साँसें रवाँ - दवाँ कर दे
फिर लगे दूर आसमाँ कर दे
प्यासे दोनों तरफ़ हैं , खाई के
है कोई.. ? खाई जो कुआँ कर दे
वो ठिकाना जहाँ उजाला हो
सब की ख़ातिर उसे अयाँ कर दे
दुश्मनी घुट के मर न जाये कहीं
आ मेरे सामने , बयाँ कर दे
ऐ ख़ुदा, क्या नहीं है बस में तिरे
हिन्दी- उर्दू को एक जाँ कर दे
कैसे देखूँगा मै ये जंग ए अदब
मेरी आँखे धुआँ धुआँ कर…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on April 23, 2017 at 11:11am — 23 Comments
22 22 22 22 22 22 ( बहर ए मीर )
कटे हाथ लेकर बे चारे घूम रहे हैं
मांग रहे हैं, कहीं सहारे, घूम रहे हैं
कर्मों का लेखा उनका मत बाहर आये
इसी जुगत में डर के मारे, घूम रहे हैं
हाथों मे पत्थर हैं जिनके, उनके पीछे
छिपे हुये अब भी हत्यारे घूम रहे हैं
अँधियारा अब भी फैला है आंगन आंगन
क्यों ये सूरज, चंदा, तारे घूम रहे हैं
शब्द भटक जाते हैं उनके, अर्थ हीन हो
जिनके घर के अब चौबारे घूम रहे…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on April 13, 2017 at 11:01am — 9 Comments
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