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हो चाह भी, तो कोई ये हिम्मत न कर सके
तेरी जफ़ा की कोई शिकायत न कर सके
तुम क़त्ल करके चौक में लटका दो ज़िस्म को
ता फिर कोई भी शौक़ ए बगावत न कर सके
हाल ए तबाही देख तेरी बारगाह की
हम जायें बार बार ये हसरत न कर सके
बारगाह - दरबार
मैंने ग़लत कहा जिसे, हर हाल हो ग़लत
तुम देखना ! कोई भी हिमायत न कर सके
बन्दे जो कारनामे तेरे नाम से किये
हम चाह कर ख़ुदा की इबादत न कर सके
माना कि तल्ख़ियाँ रहीं गुफ़्तार में मगर
पोशीदा यार तुम भी अदावत न कर सके
मिल कर निजाम से कोई आईन ऐसा गढ़
कोई किसी ज़मीन पे हुज्जत न कर सके
आईन - कानून , विधान
उर्दू का लफ्ज़ था कोई हिन्दी के लफ्ज़ हम
अफसोस पास रह के इज़ाफत न कर सके
इज़ाफत - सम्बन्ध
पगड़ी की फिक्र थी जिन्हें, अकड़े रहे सदा
झुक कर वो फिर कहीं भी मुहब्बत न कर सके
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
आदरणीय लक्ष्मण भाई , गज़ल की सराहना के लिये आपका हृदय से आभार ।
आ. भाई गिरिराज जी , इस सुंदर गजल के लिए हार्दिक बधाई स्वीकारें।
आदरनीय समर भाई , ख़ुदा वाले शेर के भाव को बारीकी से समझने और समझाने के लिये आपका हार्दिक आभार । आपके द्वारा किया बदलाव मै स्वीकार करता हूँ ..
'बन्दे जो कारनामे तेरे नाम पर किये
ये देख हम भी तेरी इबादत न कर सके .. ... बहुत खूब ... बहुत आभार आपका ।
आदरनीय नरेन्द्र भाई , हौसला अफज़ाई का शुक्रिया आपका ।
आदरनीय गुर प्रीत भाई , ग़ज़ल की सराहना कर उत्साह वर्धंन करने के लिये आपका हार्दिक आभार ।
हो चाह भी, तो कोई ये हिम्मत न कर सके
तेरी जफ़ा की कोई शिकायत न कर सके
तुम क़त्ल करके चौक में लटका दो ज़िस्म को
ता फिर कोई भी शौक़ ए बगावत न कर सके
लाजवाब। ..
waa
वाह वाह बहुत ही खूबसूरत ग़ज़ल है आदरणीय गिरिराज जी
उर्दू का लफ्ज़ था कोई हिन्दी के लफ्ज़ हम
अफसोस पास रह के इज़ाफत न कर सके
यह शियर तो उफ़
आ. गिरिराज जी,
खुदा और तू अथवा तेरे आने से शातुर्गुरबा नहीं है... आप इशारा नहीं समझे...
ऊपर तेरे आने से नीचे ऐ ख़ुदा या संबोधन आएगा ...
खैर..
जैसा आप उचित समझे
सादर
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