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ग़ज़ल - रास्ते ही मेरे तवील आये ( गिरिराज भंडारी )

2122     1212    22  /112

चाहे ग़ालिब, या फिर शकील आये  

गलतियाँ कर.., अगर दलील आये

 

मिसरे मेरे भी ठीक हो जायें

साथ गर आप सा वक़ील आये

 

ख़ुद ही मुंसिफ हैं अपने ज़ुर्मों के

और अब खुद ही बन वक़ील आये  

 

भीड़ में पागलों की घुसना क्यों ?

हो के आखिर न तुम ज़लील आये

 

ज़िन्दा लड़की ही घर से निकली थी

जाने क्या सोच कर ये चील आये

 

आग-पानी सी दुश्मनी रख कर

बह के पानी सा, बन ख़लील आये

 

जिनके रस्ते में फूल बोये हम

उनसे बदले में कांटे – कील आये

 

मंज़िलें मुंतज़िर तो थीं, लेकिन     

रास्ते  ही मेरे  तवील आये

****************************

मौलिक एवँ अप्रकाशित

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Comment by Dr Ashutosh Mishra on June 14, 2017 at 3:39pm

आदरणीय गिरिराज भाईसाब कुछ अलग ही अंदाज में हुयी है यह ग़ज़ल खलील का क्या अर्थ होता है इस प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई स्वीकार करेंसादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on June 14, 2017 at 9:32am

बहुत सुन्दर काफिया लेकर बढिया ग़ज़ल कही है आद० गिरिराज जी बहुत- बहुत बधाई| 

Comment by रामबली गुप्ता on June 13, 2017 at 4:42pm
वाह वाह वाह आद0 गिरिराज भाई जी। बहुत ही शानदार ग़ज़ल कही आपने। बारम्बार बधाई स्वीकार करें। इस शैर के लिए तो हजार तालियाँ-

ज़िन्दा लड़की ही घर से निकली थी,
जाने क्या सोच कर ये चील आये।
Comment by Gurpreet Singh jammu on June 13, 2017 at 10:05am

ज़िन्दा लड़की ही घर से निकली थी
जाने क्या सोच कर ये चील आये
वाह वाह आदरणीय गिरिराज जी,, बहुत खूबसूरत ग़ज़ल हुई है
कृपया ख़लील शब्द का अर्थ बताइएगा सर जी

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on June 12, 2017 at 8:03pm
आदरणीय बहुत ही बेहतरीन ग़ज़ल हुई..सादर
Comment by Mohammed Arif on June 11, 2017 at 5:48pm
आदरणीय गिरीराज भंडारी जी आदाब, बेहतरीन ग़ज़ल । हार्दिक बधाई स्वीकार करें ।

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