22 22 22 22 22 2
तू पर उगा, मैं आसमाँ तलाश रहा हूँ
हम रह सकें ऐसा जहाँ तलाश रहा हूँ
ज़र्रों में माहताब का हो अक्स नुमाया
पगडंडियों में कहकशाँ तलाश रहा हूँ
खामोशियाँ देतीं है घुटन सच ही कहा है
मैं इसलिये तो हमज़बाँ तलाश रहा हूँ
जलती हुई बस्ती की गुनहगार हवा अब
थम जाये वहीं,.. वो बयाँ तलाश रहा हूँ
मैं खो चुका हूँ शह’र तेरी भीड़ में ऐसे
हालात ये, कि ज़िस्म ओ जाँ तलाश रहा हूँ
दरिया ए गिला हूँ, कि न बह जाये बज़्म ये
मै आज बह्र-ए- बेकराँ तलाश रहा हूँ
मैं थक चुका हूँ ढूँढ, वो बहिश्त सा जहाँ
तारीख़ में लिक्खा जहाँ, तलाश रहा हूँ
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
आदरणीय गिरिराज जी,
'इस बहर में मीर के कुछ ही ऐसे मिसरे है जिन पर विवाद है.' मेरी इस पंक्ति का आशय ये नहीं है कि इन मिसरों की मौजूनियत पर किसी को शक है. या किसी ने ये कहा हो कि ये मिसरे बेबहर हैं. विवाद के कई दूसरे अरूजी पहलू रहे हैं. जैसे मीर के एक आध मिसरे ऐसे हैं जिनमें कोई अरूज़ी वक्फा नहीं पाया जाता. लेकिन इसके आधार पर ये नहीं कहा जा सकता की इस बहर में कोई अरूजी वक्फा नहीं होता. मीर के अधिकांश मिसरों में अरूजी वक्फा पाया जाता है. और कोई सामान्य नियम निर्धारित होगा तो इसी आधार पर निर्धारित होगा. जो चंद मिसरे विवादित हैं उन्हें अरूज़ियों की बहस के लिए छोड़ा जा सकता है. एक सामान्य रचनाकार के लिए इस बहर के सामान्य नियम तय हैं और उन के आधार पर सफलता पूर्वक ग़ज़लें लिखी जाती रहीं हैं.
जहाँ तक चर्चा की बात है एक सार्थक चर्चा हमेशा उपयोगी होती है.
सादर
आदरणीय सलीम भाई ,
1) यह मंच सीखने सिखाने का है , यहाँ कोई गुरु कोई चेला नही है । यहाँ ऐसे ही लम्बी लम्बी चर्चाओं के माध्यम से हम एक दूसरे को सीखते और सीखते हुये शून्य से यहाँ तक पहुँचे हैं । पिछली चर्चाओं को कभी पढ के देखियेगा ... हफ्तों और महीनों तक जवाब सवाल होते दिखेंगे । आज भी उन्ही च्रर्चाओं से सम्बन्धित प्रश्न पूछे जा सकते हैं , और देर सवेर आपको जवाब भी मिल जायेगा ।
2) जिस भाष का उपयोग आपने किया था उस भाषा मे कहने का अधिकार केवल प्रबन्धन को है । न मुझे ( मै कार्यकारिणी सदस्यों मे हूँ ) भी नही है , न आपको है , न ही किसी और को ।
3) -- आ. अजय भाई जी ने आ. वीनस भाई जी की किताब में लिखी बातों मे से कई बिन्दुओं प्रश्न चिन्ह लगाया है , क्या आ. वीनस भाई जी को उनका जवाब देन का अधिकार नही है ? कैसे और क्यों हमें चर्चा को बन्द कर देनी चाहिये । और अगर चर्चा बन्द कर दें तो क्या ये उचित होता ? आ. वीनस भाई जी के स्थान पर खड़े हो कर सोचियेगा ।
अब भी आपको कुछ गलत लग रहा हो तो बताइयेगा , मै उम्र के सिवाय किसी अन्य मामले मे खुद को किसे से भी बड़ा नही मानता । मुझे गलती स्वीकारने मे भी कोई दिक्कत नही होगी । सादर !!
आदरणीय गिरिराज जी ,
आपको मेरी प्रतिक्रिया नहीं हटानी चाहिए थी ,मैं आपकी बहुत इज़्ज़त करता हूँ मैं ग़लत नहीं कह सकता हाँ जो महसूस हुआ लिख दिया।
आपको जो बातें कड़वी लगी आपने पेस्ट कर दिया बांकी जिसमें , हमने आदरणीय अजय जी , विनस जी, तस्दीक़ साहिब ,समर साहिब व इस लेख से हम सभी जो सीखे उसकी तारीफ आपने उड़ा दी आपने ये तो गलत किया न,,,,,, ,और जब तक आप चाहे या गुरुजन जब तक सिखाएं इस बहर को सीखे आपकी मर्जी.
बांकी आपको बुरा लगा तो माफ़ करें सादर
आ. सलीम भाई , आपके ये वाक्य शोभनीय नहीं हैं >>> // मेरे ख़्याल से अब यह चर्चा बंद हो जानि चाहिए ,
और बाँकी लोगों की ग़ज़लों पर अपना अनमोल सुझाव अंकित करना चाहिए जिससे हम बांकी लोग भी लाभान्वित हो सकें ,,
मुझे ये महसूस हो रहा है कि इस व्यस्थता के वज़ह से बांकी लोगों को गुणीजनों का साथ कम मिल पा रहा है,
जिस चर्चा को न तो आपने शुरू किया न ही भाग लिया उसे आप बन्द कैसे समझ सकते हैं ? शायद आपको नही मालूम सार्थक चर्चा के ही इस मंच का मूल है , और जिसका अधिकार सभी सदस्यों को है , यह उन पर निर्भर है कि वो भाग ले या न लें ।
किसे भी रचना पर या तो आलोचना हो या समालोचना हो , रचना से सम्बन्धित चर्चा हो , इससे अलग बात स्वीकार्य नही है ।
आपकी ये लाइने मंच की गरिमा के खिलाफ है , मै ये नही समझता कि इसे मेरी रचना मे होना ज़रूरी है ! अतः मै आपकी प्रतिक्रिया डिलिट कर रहा हूँ -- सादर
आ. अजय भाई , आपकी प्रतिक्रिया के निम्न लाइन बहुत कुछ कह रहे हैं ,
// प्रिचेट के नक्शे में सिर्फ 8 पैटर्न हैं जिनसे मीर के 97% मिसरों की तक्ती संभव है (यह फारूकी साहब ने खुद शेरे-शोरअंगेज़ में लिखा है) आरिफ हसन खान ने तख्निक से इस बहर के 264 पैटर्न प्रस्तुत किये हैं. मुझे नहीं पता की इनसे तक्ती करने पर प्रतिशत क्या होगा. कमाल अहमद सिद्दीकी और आरिफ हसन खान जैसे अरूजियों ने इस बहर के बारे में सोचने का नजरिया बहुत हद तक बदल दिया है. // इस बहर में मीर के कुछ ही ऐसे मिसरे है जिन पर विवाद है//और उन में से भी अधिकांश विवादों का कारण अरूज़ी गैर-जानकारी और गलत पाठों का उपलब्ध होना रहा है //
जिनके नाम से बहर का नाम '' बहरे मीर रखा गया है , जब उनकी की गज़लों की तक्तीअ का ये हाल है तो हमारी क्या औकात । बाक़ी आपने गंभीतरा से अपनी बात रखी और आ. वीनस भाई जी ने अपनी बात रखी , मंच को कुछ तो प्राप्त होगा ही , इसका मुझे विश्वास है , विवाद हमेशा सुलझ ही ये जाये ये ये ज़रूरी भी नही है , बहरे मीर के सिवाय भी बहुत से मसले हैं गज़ल के जो अभी भी अन सुलझे हैं , जिसकी जैसी समझ है वैसा ही मान कर चलता रहता है , अंत तः इसे शायर अपनी स्वतंत्रता बताकर गलतियाँ दुहराते देखा गया है ।
आपका पुनः आभार ।
आदरणीय गिरिराज जी,
इस बहर के मूलभूत तथ्य ये हैं :
1 - इस बहर का प्रचलित नाम बहरे-मीर है.
2 - इस बहर का अरूजी नाम 'मुतक़ारिब मुसम्मन असरम मक़्बूज़ महज़ूफ़ मुज़ाइफ़' है .
3- इस बहर के अरूजी अर्कान 'फेल फ़ऊल फ़ऊल फ़ऊल फ़ऊल फ़ऊल फ़ऊल फ़अल' (21 121 121 121 121 121 121 12) हैं.
4 - इस बहर के आम तौर पर इस्तेमाल होने वाले अर्कान 'फेलुन फेलुन फेलुन फेलुन फेलुन फेलुन फेलुन फा' (22 22 22 22 22 22 22 2) है जो मूल अर्कान पर तख्निक के प्रयोग से हासिल किये गए हैं.
5 - इस बहर में लिखी ग़ज़ल के मतले में कम से कम एक बार 211(फेलुन) का प्रयोग अनिवार्य है. अगर सिर्फ 22(फेलुन) का प्रयोग किया गया तो ग़ज़ल मुतदारिक की हो जायेगी.
6 - सिर्फ दूसरे चौथे छठे आठवें दशवे बारहवें और चौदहवे गुरु(2) की जगह ही दो लघु (11) के प्रयोग की छूट है या इन स्थानों पर दो लघु(11) को गुरु(2) माना जा सकता है.
7 - पहले, तीसरे, पांचवे, सातवें, नौवें, ग्यारहवें, तेरहवें और पन्दरहवें गुरु(2) की जगह कभी दो लघु (11) इस्तेमाल नहीं किया जा सकता.
8 - दो गुरु (22) की जगह 'लघु-गुरु-लघु'(121) कभी-कभी इस्तेमाल करने की छूट है. ध्यान रहे यह छूट है नियम नहीं. (मीर अपनी ग़ज़लों के एक-दो मिसरों में सिर्फ एक-दो बार करते है. और ये छूट उन्होंने प्रायः मिसरों के पहले या पांचवे रुक्न पर इस्तेमाल की है.)
9 - इस बहर में चौथे रुक्न के बाद एक यति(अरूजी वक्फा) होती है. आम तौर पर यति के बाद एक अतिरिक्त लघु(1) के इस्तेमाल की छूट है लेकिन इस बहर में ये छूट नहीं ली जा सकती.
10 - मिसरे के आखिर में अन्य बहरों की तरह इसमें भी एक अतिरिक्त लघु के प्रयोग की छूट है.
सादर
आदरणीय वीनस जी,
बहरे-मीर पर पुस्तक के सम्पूर्ण अंश को प्रस्तुत करने के लिए आपका बहुत बहुत धयवाद. इसके कुछ अंश मुझे ऐसे लगे जिन पर पुनार्विचार की जरूरत है :
\\ इसमें कहीं भी ११ को २ अनुसार पढ़ा जा सकता है।\\
इस बहर के बारे में यह तथ्य परक नहीं है. अगर ऐसा किया गया तो मिसरा निश्चित रूप से बेबहर हो जाएगा.
\\ग़जल शास्त्र में एक मात्र मात्रिक बह्र अरूज़ की बह्रों के साथ अपवाद स्वरूप मान्यता प्राप्त है।\\
यह बहर उसी तरह अरूज के नियमों का पालन करती है जैसे अन्य बहरें इसलिए इसे अपवाद कहना उचित नहीं है यह विशिष्ट जरूर है.
\\यह बह्र फारसी बह्र के मूल नियमों पर नहीं वरन् लयात्मकता पर आधारित है\\
यह धारणा निराधार है.आरिफ हसन खान इसके बारे में काफी कुछ लिख चुके हैं. इस बहर का आधार फ़ारसी अरूज़ के मूल नियम ही हैं. इस की लयात्मकता अरूज के नियमों पर आधारित अर्कानों की तरतीब(छान्दशास्त्रिय संरचना>पैटर्न ) पर ही आधारित है.
\\अरू़ज में इस मात्रिक बह्र को कुछ लोग मुत़कारिब अर्थात् फऊलुन (१२२) तथा कुछ लोग मुतदारिक अर्थात् फाइलुन २१२ रुक्न के अनुसार त़क्तीअ करते हैं.\\
बहरे-मीर को ज्यादातर अरूजी बहरे मुतकारिब का ही आहंग है मानते हैं इसकी तक्ती मुतकारिब में ही होती रही है. मुतदारिक में इसकी तक्ती अरूज़ी तौर पर नामुमकिन है.
\\देखें इन चार मिस्रों में अर्कान का पैटर्न अलग-अलग है, परन्तु सभी मिसरे में अर्कान ३० मात्रिक हैं। अत: इसे अरू़ज की बह्र समझना उचित प्रतीत नहीं होता है।\\
जो भी पैटर्न आपने प्रस्तुत किये है वो तख्नीक द्वारा हासिल होते हैं और तख्नीक अरूज़ का ही एक टूल है. इस आधार पर इसे मात्रिक बहर नहीं कहा जा सकता. यह बहर विशिष्ट जरूर है मगर अरूज़ के दायरे में ही विशिष्ट है.
\\अस्ल में यह एक एक अनूठी बह्र है जिसे अरू़ज और छंद के नियमों को मिला कर ईजाद किया गया है। इस बह्र में दोनों शास्त्रों से खूबियाँ ली गयी हैं। इसीलिये इसे मात्रिक बह्र कहना उचित होगा। प्रसिद्ध उर्दू आलोचक शम्सुर्रहमान फारू़की इस अनूठी बह्र को ‘बह्रे मीर’ कहते हैं।\\
इस कथन का कोई ठोस ऐतिहासिक या तार्किक आधार नहीं है. अरूज़ के नियमों की सही जानकारी हो तो इस बहर के अधिकांश मिसरों की अरूजी तौर पर जायज़ तरीके से तक्ती की जा सकती है. जो ‘प्रसिद्ध उर्दू आलोचक शम्सुर्रहमान फारू़की इस अनूठी बह्र को ‘बह्रे मीर’ कहते हैं‘ वही इसे मात्रिक बहर मानने से साफ़ इनकार करते है वो भी उसी किताब में जिसमें इसे उन्होंने इसे ‘बह्रे मीर’ का नाम दिया.
\\''परन्तु यह ऩक्शा इस मात्रिक बह्र को शत-प्रतिशत परिभाषित नहीं कर पाता है। अब भी कुछ पैटर्न छूट जाते हैं क्योंकि मुत़कारिब रुक्न के जिहा़फ में वो पैटर्न बनाए ही नहीं जा सकते हैं। उन अर्कान के लिये हमें अन्य एक रुक्न मुतदारिक से बह्र बनानी पड़ती है।'' \\
मुतदारिक और मुतकारिब के अर्कान एक दूसरे में शामिल करने को हरदम दोष समझा जाता रहा है और यही बात बहरे-मीर के बारे में भी सत्य है. अरूजी तौर पर न यह जायज़ है न इसकी ज़रुरत है. प्रिचेट के नक्शे में सिर्फ 8 पैटर्न हैं जिनसे मीर के 97% मिसरों की तक्ती संभव है (यह फारूकी साहब ने खुद शेरे-शोरअंगेज़ में लिखा है) आरिफ हसन खान ने तख्निक से इस बहर के 264 पैटर्न प्रस्तुत किये हैं. मुझे नहीं पता की इनसे तक्ती करने पर प्रतिशत क्या होगा. कमाल अहमद सिद्दीकी और आरिफ हसन खान जैसे अरूजियों ने इस बहर के बारे में सोचने का नजरिया बहुत हद तक बदल दिया है. इस बहर में मीर के कुछ ही ऐसे मिसरे है जिन पर विवाद है और उन में से भी अधिकांश विवादों का कारण अरूज़ी गैर-जानकारी और गलत पाठों का उपलब्ध होना रहा है.
सादर
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