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ग़ज़ल - चली आयी है मिलने फिर किधर से ( गिरिराज भंडारी )

चली आयी है मिलने फिर किधर से

१२२२   १२२२    १२२

जो बच्चे दूर हैं माँ –बाप – घर से

वो पत्ते गिर चुके समझो, शज़र से

 

शिखर पर जो मिला तनहा मिला है

मरासिम हो अहम, तो बच शिखर से

 

रसोई  में  मिला  वो स्वाद  आख़िर

गुमा था जो किचन में  उम्र  भर से  

 

तू बाहर बन सँवर के आये जितना

मैं भीतर झाँक सकता हूँ , नज़र से

 

छिपी  है ज़िंदगी  में  मौत  हरदम

वो छू  लेगी  अगर  भागेगा डर से

 

खुशी बेनाम है, ज़िद्दी है, बस वो

चली आयी है मिलने फिर किधर से

 

लिये  कश्कोल अब  वो  घूमता  है

गदा खाली  न  भेजा जिसने दर से

 

तू चाहे चल, घिसट या  दौड़ता  रह

नहीं मुमकिन अलग  होना सफ़र से   

********************************** 

औलिक एवं अप्रकाशित 

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Comment

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 7, 2025 at 6:27pm

आदरणीय सौरभ भाई , ग़ज़ल  के शेर पर आपकी विस्तृत प्रतिक्रिया देख मन को सुकून मिला , आपको मेरे कुछ शेर अच्छे लगे तो लगा मेरी  मेहनत सफल हुई |  उत्साह वर्धन के लिए आपका  ह्रदय आभार 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 30, 2025 at 12:12pm

आदरणीय गिरिराज भाईजी, आपकी प्रस्तुति का यह लिहाज इसलिए पसंद नहीं आया कि यह रचना आपकी प्रिया विधा में है, बल्कि इसके कई अश’आर कई स्तरों पर अर्थवान होते हैं. 

जो बच्चे दूर हैं माँ –बाप – घर से

वो पत्ते गिर चुके समझो, शज़र से  .. ... स्थानीय दूरी और सांस्कारिक दूरी के बीच का जो भावांतर है वह इस मतले को वाकई बड़ा करता है. 

  

शिखर पर जो मिला तनहा मिला है

मरासिम हो अहम, तो बच शिखर से ... क्या बात है, आदरणीय ! मुझे अटलजी की एक प्रसिद्ध कविता का स्मरण हो आया - 

मेरे प्रभु ! मुझे इतनी ऊँचाई कभी मत देना / गैरों को गले न लगा सकूँ, / इतनी रुखाई कभी मत देना.. 

 

रसोई  में  मिला  वो स्वाद  आख़िर

गुमा था जो किचन में  उम्र  भर से  ... इस शेर ने मुझे भावमय कर दिया. रसोई और किचन का भेद/ अंतर किस महीनी से निखरा है.  

 

तू बाहर बन सँवर के आये जितना

मैं भीतर झाँक सकता हूँ , नज़र से ... भाईजी, झाँका तो नजर से ही जाता है. फिर इस नजर की आवश्यकता क्यों बनी ? ’नजर’ के स्थान पर यदि ’असर’ का प्रयोग कर देखिए, क्या बात बनती दीख पड़ती है? 

 

छिपी  है ज़िंदगी  में  मौत  हरदम

वो छू  लेगी  अगर  भागेगा डर से  ... हम्म्म.. हमारे यहाँ एक मसल है, जिसका लुब्बेलुबाब है, कि मौत से नहीं उसके ’परक जाने’ से डर लगता है.

 

खुशी बेनाम है, ज़िद्दी है, बस वो

चली आयी है मिलने फिर किधर से .. यह शेर मेरे पास बहुत नहीं खुल सका. हालाँकि, इसका भावार्थ समझ रहा हूँ. कि, खुशी से उम्मीद तो न थी कि वो मिलने को चली आये या उत्सुक हो.  

 

लिये  कश्कोल अब  वो  घूमता  है

गदा खाली  न  भेजा जिसने दर से  .. समय-समय की बात है. और, श्रेय और प्रेय की भावनाएँ भी किये गये कार्य की गरिमा और उपलब्धियों को प्रभावित करती है. ’कर्त्ता होने’ का तीक्ष्ण भाव कार्य-परिणाम को कमतर कर ही देता है. कहा भी गया है न, बोये पेड़ बबूल का, आम कहाँ से होय ? कर्त्ता होने के उत्कट भाव से ऐसी ही दुर्गतियों से पाला पड़ता है. 

  

तू चाहे चल, घिसट या  दौड़ता  रह

नहीं मुमकिन अलग  होना सफ़र से ...  वाह वाह ! एक जिंदा आदमी जिंदगी के सफर से व्गि हो ही नहीं सकता. जिंदगी एक सफर है. अब इसे निबाहना ही पुरुषार्थ है. यही प्रारब्ध को साधता है. 

आपकी प्रस्तुति की हमने भाव-यात्रा की. अच्छा लगा. हार्दिक बधाइयाँ 

  


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 25, 2025 at 4:54pm

आदरणीय चेतन प्रकाश भाई ग़ज़ल पर उपस्थित हो उत्साह वर्धन करने के लिए आपका हार्दिक  आभार 
आदरणीय आपकी सलाह उचित है , सलाह के अनुसार सुधार अवश्य कर लूंगा , आपका पुनः आभार 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 25, 2025 at 4:51pm

आदरणीय सुशील भाई  गज़ल की सराहना कर उत्साह वर्धन करने के लिए आपका आभार 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 25, 2025 at 4:50pm

आदरणीय लक्ष्मण भाई , उत्साह वर्धन के लिए आपका हार्दिक आभार 

Comment by Chetan Prakash on August 24, 2025 at 10:58pm

खूबसूरत ग़ज़ल हुई आदरणीय गिरिराज भंडारी जी ।

"छिपी है ज़िन्दगी मैं मौत हरदम

वो छू लेगी अगर ( जो तू ) भागेगा डर के 

सुझाया हुआ  विकल्प कदाचित  बेहतर होता 

क्योंकि  पूरा शे'र  बिना कर्ता रह जाएगा !

सादर!

Comment by Sushil Sarna on August 23, 2025 at 2:05pm
आदरणीय गिरिराज भंडारी जी बहुत सुंदर यथार्थवादी सृजन हुआ है । हार्दिक बधाई सर
Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 23, 2025 at 10:03am

आ. भाई गिरिराज जी, सादर अभिवादन। बहुत खूबसूरत गजल हुई है। हार्दिक बधाई।

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