एक सच्चा गलत आदमी
सच का पैरोकार होता है
नारे लगाता है
हवा में मुट्ठियाँ भांजता है
भरोसा लपकता है
फिर उन्हे चबाता है
प्रगतिशील कहलाता है
एक सच्चा गलत आदमी
कभी पूरा झूठ नही बोलता
गलतियाँ नही दोहराता
कभी धन कभी ताकत
कभी भावनाओं के जोर पर
भोलेपन से खेलता है।
जब आत्मा धित्कारती है
बद्दुआएँ कोचती हैं
सुबह मन्दिर मे मत्था टेक आता है
चढावा चढाता है
फिर बैठ जाता है अनेक प्रेयसियों मे से
किसी एक के सम्मुख,
कंचुकी के अंतिम गांठ खुलने तक
एक सच्चा गलत आदमी
तिलिस्मी होता है।
अपनेपन का ढोंग रचता हुआ
अपने छोटॆ कद से झुंझलाया हुआ
खडा हो जाता है
भ्रम की अट्टालिका पर
उडाता है मासूमियत का मजाक
खुद के दिये जख्मो पर
कैफियत पूछ-पूछकर
नमक छिडकता है।
एक सच्चा गलत आदमी
दूसरों की नजर मे
हमेशा अच्छा होता है।
इसी अच्छाई के प्रभाव मे
जब कर बैठता है
एक अदद सही काम
गलत परिणाम भुगतता है
एक सच्चा गलत आदमी
हमेशा गलत नही होता
और हमसब के भीतर कहीं ना कहीं होता है।
.
ग़ुल सारिका
(अप्रकाशित और मौलिक)
Comment
आदरणीया सारिका जी , लाजावाब रचना , वाह वाह !! क्या बात कही --
एक सच्चा गलत आदमी
हमेशा गलत नही होता
और हमसब के भीतर कहीं ना कहीं होता है। ------------ वाह !!
बहुत सही चित्रण किया आपने ...सादर
एक सच्चा गलत आदमी
हमेशा गलत नही होता
और हमसब के भीतर कहीं ना कहीं होता है।
......कमाल कमाल उम्मीद से सौ गुना आ. सारिका जी ..सशक्त जीवट रचना .. दिल से आपके सृजन के लिए साधुवाद शुभकामनायें !! खूब लिखिए और लिखते रहिये !!
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