अस्सी वर्षीय बाबू केदार नाथ ने अपने कानों में सुनने वाली मशीन लगाकर मफ़लर लपेट लिया| आईने में खुद को देखकर आश्वस्त हुए| मशीन पूरी तरह मफ़लर के नीचे छिप गया था| अब उन्होने पुराना टेप रिकार्डर निकाला और प्रिय गाना बजा दिया|
बरेली के बाज़ार में झुमका गिरा रे-कमरे में आशा भोसले की नखरीली आवाज़ गूंज उठी|
बाबू केदारनाथ के होंठो पर एक प्यारी सी मुस्कान खेल गई|
अजी सुनते हो! उनके कानो से एक तेज कटार सी आवाज टकराई|
अपने बाउजी को…
Added by Gul Sarika Thakur on August 11, 2017 at 11:47am — 6 Comments
आँख कान और जुबान की सांकल खुले तो
पूछना उनसे
जिंदाबाद का नारा लगानेवालों में
कितने ज़िंदा थे यकीनन|
पूछना आँखे खुल जाने के बाद
रोज निगली जाने वाली मक्खियों का स्वाद
पूछना वर्तनी उन गालियों का
जिसके एक छोर पर माँ तो दूसरे छोर पर
अक्सर बहने हुआ करती है|
मगर मत पूछना जुबान से
उस मांसल देह का स्वाद
जिसकी कन्दराओं में ना जाने
कितनी माँए और बहने दुबकी होती है
मगर एक बार पूछना जरुर
इन सांकलों के खुल…
ContinueAdded by Gul Sarika Thakur on April 4, 2014 at 2:00pm — 6 Comments
Added by Gul Sarika Thakur on January 23, 2014 at 3:30pm — 12 Comments
सुनो ऋतुराज- 15
सुनो ऋतुराज!!
वह एक अन्धी दौड थी
हांफती हुई
हदें फलांगती हुई
परिभाषाओं के सहश्र बाड़ो को
तोडती हुई
फिर भी वह भ्रम नही टूटा
जिसे तोडने के लिये संकल्पित थे हम
ऋतुओं का मौन यूँ ही बना रहा
सावन बरस् बरस कर सूख गया
हम अन्धड़ के वेग मे भी तने रहे
और आसक्ति का वृक्ष सूख गया
सुनो ऋतुराज
लमहों का बही खाता
जब भी खोलोगे
दग्ध ह्रदय पर लिखा
शुभलाभ अवश्य दिखेगा …
Added by Gul Sarika Thakur on November 5, 2013 at 11:30am — 11 Comments
इश्क के मजार पर
पाकीजा रुह का दीया रखते वक्त
जैसे ही उसने चुन्नी से सिर ढांका
लौ थर्रा कर बोली
उसके साथ ही उसका
दीन और ईमान भी वापस लौट गया
उसके साथ ही
ख्वाब और खुलूस भी खो…
ContinueAdded by Gul Sarika Thakur on September 3, 2013 at 8:30pm — 7 Comments
एक सच्चा गलत आदमी
सच का पैरोकार होता है
नारे लगाता है
हवा में मुट्ठियाँ भांजता है
भरोसा लपकता है
फिर उन्हे चबाता है
प्रगतिशील कहलाता है
एक सच्चा गलत आदमी
कभी पूरा झूठ नही बोलता
गलतियाँ नही दोहराता
कभी धन कभी ताकत
कभी भावनाओं के जोर पर
भोलेपन से खेलता है।
जब आत्मा धित्कारती है
बद्दुआएँ कोचती हैं
सुबह मन्दिर मे मत्था टेक आता है
चढावा चढाता है
फिर बैठ जाता है अनेक प्रेयसियों मे से
किसी एक…
Added by Gul Sarika Thakur on August 31, 2013 at 10:30pm — 13 Comments
सुनो ऋतुराज! – ११
ये मान मनौव्वल, झूमा-झटकी
बरजोरी, करजोरी और मुँहजोरी
तभी तक, जब तक
इस वैभवशाली ह्रदय का
एकछत्र साम्राज्य तुम्हारे नाम है
जिस दिन यह रियासत हार जाओगे
विस्थापित होकर कहाँ जाओगे?
फिर हम कहाँ और तुम कहाँ
सुनो ऋतुराज
हर नगरी की हर चौखट पर
पी की बाट जोहती सुहागिने
मुझ जैसी अभागन नही होती
खोने को सुख चैन
पाने को बेअंत रिक्त रैन
सुख की अटारी और दुख की पिटारी
अब दोनो तुम्हारे नाम…
Added by Gul Sarika Thakur on July 23, 2013 at 3:30pm — 12 Comments
ठीक ही तो कहा उसने
क्या दरिद्रों की तरह
लम्हों के पीले पत्ते
बटोरती हो और
और कबाड़ी वाले की तरह
टेर लगाए फिरती हो
एहसासों के मोती चुगो
और राज हंसिनी कहलाओ
और मैं सोचती हूँ
उसकी जेब से
अपने हिस्से की
अठननी चवन्नी
झपट कर भाग खड़ी होऊं
कंजूस एक एक पाई का
हिसाब रखता है
Gul Sarika
Added by Gul Sarika Thakur on May 18, 2013 at 9:30pm — 9 Comments
दोनों एक सांझा चूल्हे में सुलग रहे थे
नाउम्मीदी की गीली लकड़ी में
पूरी ताकत से फूँक मारी उसने
इश्क धुआं धुंआ हो गया
किसे पता था
इस धुंआ के छंटते ही
कलेजा काठ का और आँखे
पथरीली पगडंडी बन जाएंगी
जो ठीक वहीं आकर ठिठकती है
जहां रिश्ते की ताजी ताजी कब्र बनी है|
गजब के सब्र से उसने
बुझी हुई…
Added by Gul Sarika Thakur on May 15, 2013 at 11:02pm — 14 Comments
सुनो ऋतुराज!
मौसम बदलने और ईमान बदलने में फर्क होता है
ईमान बदलने और वक्त बदलने में फर्क होता है
लेकिन धरा के दरकने और ह्र्दय के दरकने में
कोई फर्क नहीं होता ..
क्योकि दोनो में निहित…
ContinueAdded by Gul Sarika Thakur on May 14, 2013 at 7:30pm — 9 Comments
अंततः हम एकल ही थे
स्मृति में कहाँ रही सुरक्षित
जन्म लेने की अनुभूति
और ना होशो हवास में
मौत को जी पायेंगे
समस्त
कौतुहल विस्मय
अघात संताप
रणनीति कूटनीति तो
मध्य में स्थित
मध्यांतर की है
उसमे भी
जब तुमने
ज़मीन छीनकर ये कहा की
सारा आकाश तुम्हारा
मैंने पैरों का मोह त्याग दिया
और परों को उगाना सीख लिया
अब बाज़ी मेरे हाथ में थी
लेकिन हुकुम का इक्का
अब भी तुम्हारे…
ContinueAdded by Gul Sarika Thakur on January 2, 2013 at 9:33am — 12 Comments
जब कभी मेरी बात चले
ख़्वाब में भी कोई ज़िक्र चले
मेरे हमदम मेरे हमराज़
यूं ही खामोश रहो
शायद ही कभी
ठिठुरते हुए बिस्तर पे
कभी चांदनी बरसे
या फिर झील के ठहरे हुए पानी में
कभी लहरे मचले
जब कभी आँखों के समंदर में
कोई चाँद उतरे
मेरे हमदम मेरे हमराज
यूं ही खामोश रहो…
Added by Gul Sarika Thakur on November 2, 2012 at 10:05pm — 9 Comments
निश्चेष्ट धरा को
अपनी गोद में उठाए
समुद्र हाहाकार कर उठा
थरथराते होंठो से
अस्फुट से शब्द लहराए
अ...ब...और ...स...हा... न...हीं जा...ता..
वि...धा....ता!!
अशांत समुद्र ज्वार को
सम्भाल नहीं पा रहा था
फिर भी धरा को समझा रहा था
आओ सो जाते हैं
सब कुछ भूल जाते हैं
आदि से लेकर अंत तक
कहाँ रह पाए मर्यादित
मनुज की तृष्णा और लालसा से
सदैव रहे आच्छादित
आज जबकि काल की जिह्वा
लपलपा रही…
ContinueAdded by Gul Sarika Thakur on September 23, 2012 at 9:37pm — 5 Comments
जहाँ से यथार्थ की दहलीज
खत्म होती है
वहाँ से हसरतों का
सजा धजा बागीचा
शुरु होता है
जब भी कदम बढ़ाया
दहलीज फुफकार उठती है…
ContinueAdded by Gul Sarika Thakur on September 22, 2012 at 11:00pm — 11 Comments
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