जहाँ से यथार्थ की दहलीज
खत्म होती है
वहाँ से हसरतों का
सजा धजा बागीचा
शुरु होता है
जब भी कदम बढ़ाया
दहलीज फुफकार उठती है
यह कहकर कि
‘मत लांघना मुझे
मेरे भीतर सुरक्षित हो तुम
मेरे ही भीतर संरक्षित हो तुम
यह असत्य भी तो नहीं
इस दहलीज के भीतर
एक मकान है
जहाँ सुरक्षित है मेरी काया
जहाँ छू भी नहीं पता
कोई बुरी नजर का साया
और अस्तित्व?
हाँ! अस्तित्व
सुरक्षित है
अलमारी के किसी रैक में
बिस्तर के किसी कोने में
फिर भी .....
हाँ फिर भी ..
लांघना है यह दहलीज
ताकि गिरवी रखी नीन्द
खौफ के उस निगोड़े महाजन से
छुड़ा सकूँ
जानती हूँ मैं भी
आसमान की सैर
उंगली पकड़्कर
नहीं होती
इसके लिए तो
ज़ज्बे का पंख उगाना होता
अब कोई मेरे पीछे मत आना
मुझे अब पंख उगाना है
और आसमान की सैर पर जाना है
दहलीज तुम यहीं रहना
दरवाजे के कलेजे से
चिपकी हुई
लौटूंगी मैं
अपने साथ एक घर लेकर
तुम यहीं रहना ...
********
गुल सारिका
Comment
हाँ! अस्तित्व
सुरक्षित है
अलमारी के किसी रैक में
बिस्तर के किसी कोने में.......
दहलीज तुम यहीं रहना
दरवाजे के कलेजे से
चिपकी हुई
लौटूंगी मैं
अपने साथ एक घर लेकर
तुम यहीं रहना ...kya baat hai didi.....aap to bs aap hi ho...
अब कोई मेरे पीछे मत आना
मुझे अब पंख उगाना है
और आसमान की सैर पर जाना
सुन्दर रचना. बधाई.
आसमान की सैर
उंगली पकड़्कर
नहीं होती
इसके लिए तो
ज़ज्बे का पंख उगाना होता
अब कोई मेरे पीछे मत आना
मुझे अब पंख उगाना है
अति सुन्दर ! बहुत-बहुत बधाई !
आपकी कविता ने जैसे सचमुच सीमाओं की देहलीज़ पार कर ली हो और सीधे सम्प्रेषण के पंखों पे उस निर्वात तक जा पहुँची जहाँ यथार्थ के अकिंचन पर बाध्यकारी सचों की मूर्तियां नहीं सजी हैं. सुन्दर शब्दों की भावों में पिरोई लड़ियाँ, बधाई हो सारिका जी!
गुलसारिकाजी, आपकी प्रस्तुत रचना हर कुछ ऐसा साझा करती है जो आम नवयुवती के उद्गार हैं. किन्तु, आपके कहने का अंदाज़ भला लगा. संवेदना और शब्द-संप्रेषण को आपने रचना के अंत तक संतुलित रखा है. आपकी अन्य रचनाओं की प्रतीक्षा रहेगी.
हार्दिक बधाइयाँ.
आदरणीया गुल सारिका जी बहुत बधाई, बहुत ही सरल और सहज वर्णन किया है मन के डर और उसको वश में करने का.
//लांघना है यह दहलीज
ताकि गिरवी रखी नीन्द
खौफ के उस निगोड़े महाजन से
छुड़ा सकूँ//
आदरणीया गुल सारिका जी, बहुत ही उम्दा कथ्य आपकी इस रचना में निहित है, एक सरल प्रवाह रचना को और भी सौंदर्य प्रदान करता है | बहुत बहुत बधाई इस अभिव्यक्ति पर, आपकी और प्रस्तुति तथा अन्य साथियों की रचनाओं पर आपके विचारों का इस मंच पर स्वागत है |
Adarniya Laxman prasaad Ladiwala jee....is rachna ko parhne aur us pr wichaar krne ke bahut bahut abhari hun ... lekin dahleez ke andar sadaiv ghr angan nahi hota ...agar hota to ghr lekar lautne ki baat hi kahee jati ...ghr to dil me bante hain aur dil me hi toot te hain ....
बहुत सुन्दर बेहतरीन अभ्व्यक्ति जब अलमारी के किसी कोने में सजा हुआ अस्तित्व घुटन और दमन महसूस करने लगे तो दहलीज तो लांघनी ही पड़ेगी वाह क्या जबरदस्त भाव बधाई आपको
गुल सारिका झा जी रचना बेहद सुन्दर, हार्दिक बधाई, पर एक सुझाव है -इस दहलीज के भीतर एक मकान है,
के बजाय दहलीज के भीतर "घर आँगन है" कहना ज्यादा ठीक है |
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