निश्चेष्ट धरा को
अपनी गोद में उठाए
समुद्र हाहाकार कर उठा
थरथराते होंठो से
अस्फुट से शब्द लहराए
अ...ब...और ...स...हा... न...हीं जा...ता..
वि...धा....ता!!
अशांत समुद्र ज्वार को
सम्भाल नहीं पा रहा था
फिर भी धरा को समझा रहा था
आओ सो जाते हैं
सब कुछ भूल जाते हैं
आदि से लेकर अंत तक
कहाँ रह पाए मर्यादित
मनुज की तृष्णा और लालसा से
सदैव रहे आच्छादित
आज जबकि काल की जिह्वा
लपलपा रही है..
कर्मों का खाता बन्द करते हैं
आओ हम तुम सो जाते हैं।
पहुँचा हुआ पीर
वह पर्वत गहन गम्भीर
दरक कर हिल उठा
दरकना...टूटना ...बिखरना
पल भर में ही हो उठा खील खील बिखर उठा
प्रकृति हतप्रभ और पुरुष मौन था ...
अंतरिक्ष की छाती पर
बेसुध पड़े ग्रह नक्षत्रों में
गुरु अब भी होश में थे
सूर्य के प्रकोप से वह भी
कहाँ बच पाए
चरणॉं में एक क्षुद्र ग्रह
सिसक रहा था ..
बार-बार जाने क्या-क्या
पूछ रहा था
उस शावक ग्रह के पीठ पर
हाथ फेरते
गुरु स्वयं कांप रहे थे
फिर भी वह कह रहे थे
“यात्रा समाप्त हुई
दायित्व पूर्ण हुआ
अब चल अपने घर
जहाँ कोई क्षुद्र नहीं
कोई प्रबुद्ध नहीं
महा प्रयाण.... हां वत्स
वह क्षुद्र ग्रह बस टूटने ही वाला था
जीवन का मोह कहाँ छूटने वाला था
कसकर गुरु की दाढ़ी थाम ली
क्लांत गुरु पीड़ा में भी हंस पड़े
और हौले से अपनी दाढ़ी छुड़ाई
क्षुद्र ग्रह चल पड़ा
अंतिम परिणति की ओर
आज टूटते तारे को देख
कोई मनोकामना
मांगने को शेष ना रही
सृष्टि यह उजड़ी गृहस्थी
बस देखती रही ...
प्रकृति हतप्रभ और पुरुष मौन था ...
Comment
पहुँचा हुआ पीर
वह पर्वत गहन गम्भीर
दरक कर हिल उठा
दरकना...टूटना ...बिखरना
पल भर में ही हो उठा खील खील बिखर उठा
प्रकृति हतप्रभ और पुरुष मौन था ...
प्रलय को अपनी कल्पना के जरिये शब्दों में चित्रित करने का एक अत्यन्त सुन्दर - सार्थक एवं सराह्नीय प्रयास....... सारिका जी हार्दिक बधाई स्वीकार करें !!!!
प्रलय सा अनुभव ....जैसे सब कुछ ..सामने ही ...दृष्टिगोचर है !!!!!!!!!!!!!
बहुत बहुत स्वागत ..एवं बधाई ..सारिका जी ...जिस तरह का लेखन शमता आपके पास है ..वो ईश्वरीय दें ही होती है....
दिल दहला दिया !
पहुँचा हुआ पीर,वह पर्वत गहन गम्भीर
दरक कर हिल उठा.दरकना...टूटना ...बिखरना
पल भर में ही हो उठा खील खील बिखर उठा
प्याले पर जब प्रक्रति ही हतप्रभ तो फिर कुछ भी नहीं |
और तो और देव गुरु भी असहाय, प्रक्रति हतप्रभ और पुरुष मौन,सुन्दर अभिव्यक्ति गुल सारिका जी, बधाई
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