जब कभी मेरी बात चले
ख़्वाब में भी कोई ज़िक्र चले
मेरे हमदम मेरे हमराज़
यूं ही खामोश रहो
शायद ही कभी
ठिठुरते हुए बिस्तर पे
कभी चांदनी बरसे
या फिर झील के ठहरे हुए पानी में
कभी लहरे मचले
जब कभी आँखों के समंदर में
कोई चाँद उतरे
मेरे हमदम मेरे हमराज
यूं ही खामोश रहो ...
जब कभी चाँद जले
मेरी उम्मीद मेरी हसरत
परवान चढ़े ..
और फिर गीत कोई
सूखे लबो को
छूकर निकले
मेरे हमदम मेरे हमराज
यूं ही खामोश रहो ..
बुझ गई रात दिन भी मिला
टुकडो में
जख्म रिसते रहे अपनो से मिले
फिकरो में
जब कभी आस जगे ....
और कहीं ओस गिरे
मेरे हमदम मेरे हमराज
यूं ही खामोश रहो ...
चन्द लम्हों के ये सिक्के
जो थी वस्ल की रात
मेरी मुट्ठी में खनक उनकी
यूं ही कैद रहे
जब कभी रूह जिस्म के तिलिस्म से बाहर निकले
और कहीं दूर से रेत को छूता हुआ
सावन निकले
मेरे हमदम मेरे हमराज
यूं ही खामोश रहो ... गुल सारिका ...
Comment
गुल सारिका जी, अच्छी रचना है , कृपया बधाई स्वीकार कर लेंगी |
चन्द लम्हों के ये सिक्के
जो थी वस्ल की रात
मेरी मुट्ठी में खनक उनकी
यूं ही कैद रहे
जब कभी रूह जिस्म के तिलिस्म से बाहर निकले
और कहीं दूर से रेत को छूता हुआ
सावन निकले
मेरे हमदम मेरे हमराज
यूं ही खामोश रहो .-------बहुत सुन्दर पंक्तियाँ सुन्दर जज्बातों की लडियां पिरोती हुई रचना बहुत अच्छी लगी बधाई गुल सारिका जी
भावों की हृदयस्पर्शी अभिव्यक्ति ! कुछ पंक्तियाँ बहुत अच्छी बन पड़ी हैं ! बिम्ब और प्रतीक प्रभावित कर रहे हैं ! बधाई और शुभकामनाएँ !
सुंदर रचना के लिए बधाई
bahut bahut shukriya aap sabhee ka ... anugrihit hun ...
बहुत कोमल भावों को अभिव्यक्ति मिली है, हार्दिक बधाई इस रचना हेतु गुल सारिका जी
चन्द लम्हों के ये सिक्के
जो थी वस्ल की रात
मेरी मुट्ठी में खनक उनकी
यूं ही कैद रहे
जब कभी रूह जिस्म के तिलिस्म से बाहर निकले
और कहीं दूर से रेत को छूता हुआ
सावन निकले
मेरे हमदम मेरे हमराज
यूं ही खामोश रहो.....बहुत सुन्दर .....इस मनमोहक प्रस्तुति के लिए बधाई गुल सारिका जी
मेरी उम्मीद मेरी हसरत परवान चढ़े .. और फिर गीत कोई सूखे लबो को छूकर निकले
गुल सारिका ठाकुर.. ’यूँ ही खामोश रहो’ आपकी प्रथम प्रविष्टि मेरी दृष्टि में आयी है. इस मंच पर स्वागत करता हूँ.
रचना के कुछ बिम्ब आशान्वित कर रहे हैं. हार्दिक बधाई.
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