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यूं ही खामोश रहो ...

जब कभी मेरी बात चले 
ख़्वाब में भी कोई ज़िक्र चले 
मेरे हमदम मेरे हमराज़ 
यूं ही खामोश रहो 
शायद ही कभी 
ठिठुरते हुए बिस्तर पे 
कभी चांदनी बरसे 
या फिर झील के ठहरे हुए पानी में 
कभी लहरे मचले 
जब कभी आँखों के समंदर में 
कोई चाँद उतरे 
मेरे हमदम मेरे हमराज 
यूं ही खामोश रहो ... 
जब कभी चाँद जले 
मेरी उम्मीद मेरी हसरत 
परवान चढ़े .. 
और फिर गीत कोई 
सूखे लबो को 
छूकर निकले 
मेरे हमदम मेरे हमराज 
यूं ही खामोश रहो ..
बुझ गई रात दिन भी मिला 
टुकडो में 
जख्म रिसते रहे अपनो से मिले 
फिकरो में 
जब कभी आस जगे ....
और कहीं ओस गिरे 
मेरे हमदम मेरे हमराज 
यूं ही खामोश रहो ... 
चन्द लम्हों के ये सिक्के 
जो थी वस्ल की रात 
मेरी मुट्ठी में खनक उनकी 
यूं ही कैद रहे 
जब कभी रूह जिस्म के तिलिस्म से बाहर निकले 
और कहीं दूर से रेत को छूता हुआ 
सावन निकले 
मेरे हमदम मेरे हमराज 
यूं ही खामोश रहो ... गुल सारिका ...

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Comment

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मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on December 16, 2012 at 8:46pm

गुल सारिका जी, अच्छी रचना है , कृपया बधाई स्वीकार कर लेंगी |


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on November 8, 2012 at 3:50pm

चन्द लम्हों के ये सिक्के 
जो थी वस्ल की रात 
मेरी मुट्ठी में खनक उनकी 
यूं ही कैद रहे 
जब कभी रूह जिस्म के तिलिस्म से बाहर निकले 
और कहीं दूर से रेत को छूता हुआ 
सावन निकले 
मेरे हमदम मेरे हमराज 
यूं ही खामोश रहो .-------बहुत सुन्दर पंक्तियाँ सुन्दर जज्बातों की लडियां पिरोती हुई रचना बहुत अच्छी  लगी बधाई गुल सारिका जी 

Comment by Arun Sri on November 8, 2012 at 11:51am

भावों की हृदयस्पर्शी अभिव्यक्ति ! कुछ पंक्तियाँ बहुत अच्छी बन पड़ी हैं ! बिम्ब और प्रतीक प्रभावित कर रहे  हैं ! बधाई और शुभकामनाएँ !

Comment by राजेश 'मृदु' on November 5, 2012 at 12:54pm

सुंदर रचना के लिए बधाई

Comment by Gul Sarika Thakur on November 5, 2012 at 11:42am

bahut bahut shukriya aap sabhee ka ... anugrihit hun ...


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on November 4, 2012 at 3:15pm

बहुत कोमल भावों को अभिव्यक्ति मिली है, हार्दिक बधाई इस रचना हेतु गुल सारिका जी 

Comment by seema agrawal on November 4, 2012 at 10:57am

चन्द लम्हों के ये सिक्के 
जो थी वस्ल की रात 
मेरी मुट्ठी में खनक उनकी 
यूं ही कैद रहे 
जब कभी रूह जिस्म के तिलिस्म से बाहर निकले 
और कहीं दूर से रेत को छूता हुआ 
सावन निकले 
मेरे हमदम मेरे हमराज 
यूं ही खामोश रहो.....बहुत सुन्दर .....इस मनमोहक प्रस्तुति के लिए बधाई गुल सारिका जी 

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on November 3, 2012 at 7:52pm

मेरी उम्मीद मेरी हसरत परवान चढ़े .. और फिर गीत कोई सूखे लबो को छूकर निकले 

हमारी शुभकामनाए आपके साथ है, प्रभु आपकी सुनले । रचना पसंद आई, बधाई 

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on November 3, 2012 at 9:21am

गुल सारिका ठाकुर..  ’यूँ ही खामोश रहो’ आपकी प्रथम प्रविष्टि मेरी दृष्टि में आयी है. इस मंच पर स्वागत करता हूँ.

रचना के कुछ बिम्ब आशान्वित कर रहे हैं.  हार्दिक बधाई.

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