सुनो ऋतुराज!
मौसम बदलने और ईमान बदलने में फर्क होता है
ईमान बदलने और वक्त बदलने में फर्क होता है
लेकिन धरा के दरकने और ह्र्दय के दरकने में
कोई फर्क नहीं होता ..
क्योकि दोनो में निहित
एक ही कारण तत्व होता है
दहकता हुआ लावा ....
सुनो ऋतुराज!
क्योंकि तुम्हें सुनना चाहिए
उन बातों को
जो आज तुम्हारी अनगिनत
गैरजरुरी बातों का हिस्सा है
उन अजन्मी कविताओं को
जो तुम्हारे लिए महज एक किस्सा है
सुनो ऋतुराज!
तीरों से बिन्धे उस मृग की
याचना सुनो !
उसके कातर नयन बड़े ही मनभावन होते है
कस्तुरी की खातिर फिर भी जिनके वध होते हैं
निसन्देह
समन्दर के ज्वार की चाहत
नभ के दर्पण में स्वयं को निहारना नहीं होता
वह तो चन्द्रिका की सोलह कलाएं हैं
जिन्हे देख गहन गम्भीर समन्दर भी हठात आतुर हो उठता है
सुनो ऋतुराज!
वसंतोत्सव में भी
धरा का हर हिस्सा कुसुमित नहीं होता
कई बार वह दरकती है ..
लावे की शक्ल में पीड़ा उगलती है ....
या फिर क्षुब्ध होकर रेत बन जाती है
जिसे हम मरुभूमि कहते हैं
वहाँ तुम रुख नहीं करते
बुरा मत मानना
लेकिन तुम ठीक नही करते.....
Comment
समन्दर के ज्वार की चाहत
नभ के दर्पण में स्वयं को निहारना नहीं होता
वह तो चन्द्रिका की सोलह कलाएं हैं
जिन्हे देख गहन गम्भीर समन्दर भी हठात आतुर हो उठता है
सुनो ऋतुराज!.............बहुत सुन्दर.
आदरणीया गुल सारिका ठाकुर जी सादर, बहुत सुंदर भावपूर्ण रचना के लिए सादर बधाई स्वीकार करें.
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मौसम बदलने और ईमान बदलने में फर्क होता है
ईमान बदलने और वक्त बदलने में फर्क होता है .... क्या भाव है !
लेकिन धरा के दरकने और ह्र्दय के दरकने में
कोई फर्क नहीं होता
सत्य कहा है सटीक कहा है
किंतु कहा केवल ऋतुराज से क्यूँ है ये प्रश्न है मेरा आपसे
bahut bahut abhari hun aap sabhee kee .... utsaah wridhi ke liye tahe dil se shukragujaar hun.. yh rachndharimita me indhan kaa karya krti hai... ek baar punah ..dhanyawaad
सुन्दर भाव अभिव्यक्ति के लिए बधाई गुल सारिका जी
बधाई आदरणीया बहुत ही सुन्दर।
अति सुन्दर
सादर बधाई आदरणीया जी
आ0 गुल सारिका जी, ‘सुनो ऋतुराज!
वसंतोत्सव में भी
धरा का हर हिस्सा कुसुमित नहीं होता
कई बार वह दरकती है
लावे की शक्ल में पीड़ा उगलती है
या फिर क्षुब्ध होकर रेत बन जाती है
जिसे हम मरुभूमि कहते हैं
वहाँ तुम रुख नहीं करते।‘
व्यथित-उपेक्षित और दलित जैसी पीड़ा!! वाह! बहुत ही सुन्दर। बधाई स्वीकारें। सादर,
आदरणीया गुल सारिका जी:
इससे पहले कई मास हुए आपकी रचना "आधी ज़मीदारी हमारी भी है" से परिचय हुआ था।
आज आपकी नई रचना पढ़ कर पुन: सुखद आभास हुआ ।
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मौसम बदलने और ईमान बदलने में फर्क होता है
ईमान बदलने और वक्त बदलने में फर्क होता है .... क्या भाव है !
लेकिन धरा के दरकने और ह्र्दय के दरकने में
कोई फर्क नहीं होता .. // ....................................... कितना सच कहा है! ... उफ़ !
बेहद खूबसूरत मन को हिला देने वाले ख़्याल हैं!
इस रचना की एक अपनी ही अनूठी कशिश है...
पढ़ता ही गया .. सराहता ही गया।
सादर,
वि्जय निकोर
बहुत सुन्दर भावनात्मक अभिव्यक्ति .
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